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________________ पञ्चदश ] ता उद्धरेमि सम्मं एयं एयस्स आवेदिउं असेसं अणियाणो आलोचनाविधि पञ्चाशक मृत्वा सशल्यमरणं संसाराटवि - महागहने । सुचिरं भ्रमन्ति जीवा अनर्वाक् पारे अवतीर्णाः ।। ४२ ।। उद्धृतसर्वशल्या तीर्थङ्कराज्ञायां सुस्थिताः भवशतकृतानि क्षपयित्वा पापानि गताः शिवं शल्योद्धरणं चेदं त्रिलोकबन्धुभिर्दर्शितं अवितथमारोग्यफलं धन्योऽहं येनेदं तदुद्धरामि आवेद्य णाणरासिस्स । दारुणविवागं ॥ ४५ ॥ सम्यगेतदेतस्य अशेषमनिदानो जीवाः । स्थानम् ।। ४३ । ज्ञानराशेः । दारुणविपाकम् ।। ४५ ।। शल्यसहित मरकर जीव संसाररूपी घोर अरण्य (जंगल) में प्रवेश करते हैं और उसमें दीर्घकाल तक भटकते हैं ।। ४२ ।। सम्यक् । ज्ञातम् ।। ४४ । Jain Education International जिनाज्ञा में अच्छी प्रकार स्थित जीव आलोचनापूर्वक सभी शल्यों को उखाड़कर अर्थात् नष्ट कर सैकड़ों भवों में किये गये पापों की निर्जरा करके सिद्धि स्थान (मोक्ष) को प्राप्त करते हैं ।। ४३ ।। २७३ तीनों लोकों के मित्र जिनेन्द्रदेव ने इस आलोचना (शल्योद्धरण) को अच्छी तरह से कहा है । यह सच्चे भावारोग्य (भावों की शुद्धता) रूप फल देने वाली है। मैं धन्य हूँ जो मुझे यह आलोचना का अवसर प्राप्त हुआ है ॥ ४४ ॥ इसलिए मैं निदानरहित होकर भयंकर फलदायी सम्पूर्ण भावशल्य को ज्ञानराशि -: रा-गुरु के समक्ष विधिपूर्वक प्रकट करके दूर करूँगा ।। ४५ ।। उक्त प्रकार का संवेग उत्पन्न करके क्या करें इय संवेगं काउं मरुगाहरणादिएहिँ चिंधेहिं । दढमपुणकरणजुत्तो सामायारिं पउंजेज्जा ।। ४६ ।। इति संवेगं कृत्वा मरुकाहरणादिभिः चिह्नः । दृढमपुनःकरणयुक्तः सामाचा प्रयुञ्जीत ।। ४६ ।। मरुक आदि के प्रसिद्ध दृष्टान्तों से पाप को छिपाने (शल्य को रखने) से होने वाले दुष्परिणामों और उन पापों को प्रकट करने से होने वाले लाभरूप चिह्नों (कारणों) को जानकर उनसे संवेग (वैराग्य भाव ) उत्पन्न करके अर्थात् १. मरुक के दृष्टान्त हेतु आलोचनाविधि पञ्चाशक की गाथा ४६ की टीका द्रष्टव्य है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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