________________
२७२
पञ्चाशकप्रकरणम्
-
[पञ्चदश
से) शुद्धि करते हैं और जो दूसरे गीतार्थ के होने पर भी लज्जा आदि के कारण स्वयं ही आलोचना करके प्रायश्चित्त आदि ग्रहण करते हुए शुद्धि करते हैं, उनको भी भगवान् जिनेन्द्रदेव ने भावशल्य सहित कहा है ।। ३९ ।।
उपर्युक्त को दृष्टान्त से समझें किरियण्णुणावि सम्मपि रोहिओ जह वणो ससल्लो उ। होइ अपत्थो एवं अवराहवणोऽवि विण्णेओ ।। ४० ॥ क्रियाज्ञेनापि सम्यगपि रोहितो यथा व्रणः सशल्यस्तु । भवति अपथ्य एव अपराधव्रणोऽपि विज्ञेयः ॥ ४० ॥
जिस प्रकार व्रणचिकित्सा (फोड़ा, फुसी की चिकित्सा) को सम्पूर्णतया जानने वाला यदि शरीर में हुए खराब पीब आदि वाले फोड़े को बढ़ने दे और दूर न करे तो वह फोड़ा मृत्यु का कारण होने से अनिष्टकारक होता है, उसी प्रकार जिसने अपने भावशल्य को दूसरों को बतलाया नहीं है उसके लिए चारित्ररूप शरीर में स्थित अतिचाररूप फोड़ा भी अनन्त जन्म-मरण का कारण होने से अनिष्टकारक ही है, क्योंकि परमार्थ से उसका उद्धार नहीं हुआ है। दूसरों को अपने शल्य (दोष) के विषय में बतलाना ही शल्योद्धार है ।। ४० ।।
गीतार्थ की दुर्लभता में क्या करें सल्लुद्धरणनिमित्तं गीयस्सन्नेसणा उ उक्कोसा । जोयणसयाइँ सत्त उ बारस वरिसाई कायव्वा ।। ४१ ॥ शल्योद्धरणनिमित्तं गीतस्यान्वेषण तु उत्कर्षात् । योजनशतानि सप्त तु द्वादश वर्षाणि कर्तव्या ।। ४१ ।।
शल्योद्धरण के निमित्त गीतार्थ की खोज उत्कृष्टतापूर्वक क्षेत्र की दृष्टि से सात सौ योजन तक और काल की दृष्टि से बारह वर्ष तक करनी चाहिए ।। ४१ ।।
आलोचना करने के पहले कैसा संवेग उत्पन्न करना चाहिए । मरिउं ससल्लमरणं संसाराडविमहाकडिल्लम्मि । सुचिरं भमंति जीवा अणोरपारंमि ओइण्णा ।। ४२ ॥ उद्धरियसव्वसल्ला तित्थगराणाएँ सुत्थिया जीवा । भवसयकयाइँ खविउं पावाइँ गया सिवं थामं ॥ ४३ ॥ सल्लुद्धरणं च इमं तिलोगबंधूहिँ दंसियं सम्मं । अवितहमारोग्गफलं धण्णोऽहं जेणिमं णायं ।। ४४ ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org