SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 376
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चदश] आलोचनाविधि पञ्चाशक २७१ शल्य का लक्षण सम्मं दुच्चरितस्सा परसक्खिगमप्पगासणं जं तु । एयमिह भावसल्लं पण्णत्तं वीयरागेहिं ।। ३६ ॥ सम्यग् दुश्चरितस्य परसाक्षिकमप्रकाशनं यत्तु । एतदिह भावशल्यं प्रज्ञप्तं वीतरागैः ।। ३६ ।। गीतार्थ के समक्ष अपने दृष्कृत्य का भावपूर्वक प्रकाशन नहीं करना भावशल्य है – ऐसा वीतरागों ने कहा है ॥ ३६ ।। शल्योद्धार न करने से होने वाले विपाक णवि तं सत्थं व विसं दुप्पउत्तो व कुणति वेतालो । जंतं व दुप्पउत्तं सप्पो व पमादिओ कुद्धो ।। ३७ ।। जं कुणइ भावसल्लं अणुद्धियं उत्तिमट्ठकालम्मि । दुल्लहबोहीयत्तं अणंतसंसारियत्तं च ।। ३८ ।। नापि तं शस्त्रं वा विषं दुष्प्रयुक्तः वा करोति वेतालः । यन्त्रं वा दुष्प्रयुक्तं सर्पो वा प्रमादितः क्रुद्धः ।। ३७ ।। यं करोति भावशल्यम् अनुद्धृतम् उत्तमार्थकाले । दुर्लभबोधित्वं अनन्तसंसारित्वं च ।। ३८ ।। खड्गादि शस्त्र, विष, अविधि से साधित पिशाच, अविधि से प्रयुक्त शतघ्नी आदि यन्त्र अथवा छेड़ने से क्रोधित बना हुआ सर्प जो नुकसान नहीं करता, वह नुकसान पंडितमरण (अनशन) के समय नहीं किया गया भावशल्य का उद्धार करता है। पंडितमरण के समय भावशल्य का उद्धार न करने से भावी जीवन में बोधिलाभ अर्थात् धर्मप्राप्ति दुर्लभ बनती है और आत्मा अनन्त संसारी होता है ।। ३७-३८ ।। अविधि से शुद्धि करने पर भी शल्य दूर नहीं होगा आलोयणं अदाउं सति अण्णम्मिवि तहऽप्पणो दाउं । जेवि हु करेति सोहिं तेऽवि ससल्ला विणिट्ठिा ॥ ३९ ॥ आलोचनामदत्वा सति अन्यस्मिन्नपि तथाऽऽत्मनो दत्वा ।। येऽपि खलु कुर्वन्ति शोधिं तेऽपि सशल्या विनिर्दिष्टाः ।। ३९ ।। जो गुरु के समक्ष आलोचना किये बिना अपने आप (अपनी कल्पना १. 'अणुद्धितं' इति पाठान्तरम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy