________________
पञ्चाशकप्रकरणम्
[ पञ्चदश
अतिचार हैं। उपाश्रय के मालिक के बालक आदि के प्रति ममत्व आदि रखना पाँचवें व्रत का अतिचार है। उपाश्रय के मालिक की वस्तुओं की कौओं आदि से रक्षा करना सूक्ष्म अतिचार है। सोना, चाँदी और जवाहरात आदि रखना बादर अतिचार है।
२७०
दिन में लाया गया भोजन दिन में खाना, दिन में लाया गया भोजन रात को खाना, रात को लाया गया भोजन दिन में खाना और रात में लाया गया भोजन रात में खाना ये छठें व्रत के अतिचार हैं ।। ३२ ।।
--
अकल्प्य भोजन को ग्रहण करना, एषणा के सिवाय चार समितियों में प्रयत्न का अभाव, महाव्रतों की रक्षा करने वाली पच्चीस भावनाओं अथवा बारह अनुप्रेक्षाओं का अनुभावन न करना । यथाशक्ति मासिकी आदि भिक्षुप्रतिमा, द्रव्यादि अभिग्रह और विविध तपों का सेवन न करना ये क्रमशः पिण्डविशुद्धि, समिति, भावना, प्रतिमा, अभिग्रह और तप रूप उत्तरगुणों के अतिचार हैं ।। ३३ ।। उपर्युक्त अतिचार मूलगुणों और उत्तरगुणों सम्बन्धी हैं। इनके अतिरिक्त जीवादि पदार्थों में अविश्वास, विपरीत प्ररूपण आदि भी अतिचार हैं। ये अतिचार पूर्वोक्त अतिचारों से भी बड़े हैं, क्योंकि ये सम्यक्त्व को दूषित करते हैं।
उक्त सभी अतिचार आभोग (यह अकर्तव्य है - ऐसा ज्ञान), अनाभोग ( यह अकर्तव्य है - ऐसे ज्ञान का अभाव ), भय, रागद्वेष आदि से होते हैं। इस प्रकार अनेक प्रकार से अनेक अतिचार होते हैं। इसलिए उनकी पूर्णतया आलोचना करनी चाहिए || ३४ ॥
आलोचना कैसे करें
संवेगपरं चित्तं काऊणं तेहिँ तेहिँ
सुत्तेहिँ । सल्लाणुद्धरण- विवाग - दंसगादीहिँ आलोए ।। ३५ ।। संवेगपरं चित्तं कृत्वा तैस्तैः सूत्रैः ।
शल्यानुद्धरण - विपाक -दर्शकादिभिरालोचयेत् ॥ ३५ ॥
आलोचक को शल्य ( पापानुष्ठान) का उद्धार नहीं करने में होने वाले दुष्ट परिणामों (खोटे कर्मफल) को दिखाने वाले और शल्योद्धार करने में होने वाले लाभों को दिखाने वाले तत्तत् प्रसिद्ध सूत्रों से चित्त को भवभययुक्त अथवा मोक्षाभिमुख (संवेग प्रधान) बनाकर आलोचना करनी चाहिए।
इसी प्रकार गुरु भी शल्य ( पापानुष्ठान) का उद्धार न करने से होने वाले दुष्ट परिणामों और करने से होने वाले लाभों को दिखाने वाले तत्तत् प्रसिद्ध सूत्रों से शिष्य के चित्त को संविग्न बनाकर उससे आलोचना करावें ।। ३५ ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org