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पञ्चदश]
आलोचनाविधि पञ्चाशक
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पृथिव्यादिघट्टनादयः प्रचलादयस्तुच्छादत्तग्रहणादि । गुप्तिविराधन-कल्पार्थ-ममतादिवागृहीतभुक्तादिः ॥ ३२ ।। भोगोऽनेषणीये असमितत्त्वं भावनानामभावनता । यथाशक्ति चाकरणं प्रतिमानामभिग्रहाणाञ्च ।। ३३ ।। एतेऽत्रातिचारा अश्रद्धानादयश्च गुरुका भावानाम् । आभोगानाभोगादिसेवितास्तथा च ओघेन ।। ३४ ।।
साधुओं के प्राणातिपातविरमण से रात्रिभोजनविरमण तक के व्रत मूलगुण हैं। साधुओं के इन मूलगुणों का पालन तीन करण और तीन योग से अर्थात् करने, करवाने और अनुमोदन करने, मन से, वचन से और काया से (३ x ३ = ९) - इस प्रकार नव कोटियों से करना होता है ।। ३० ।।
पिण्डविशुद्धि आदि से लेकर अभिग्रह तक के गुण उत्तरगुण कहलाते हैं (४२ पिण्डविशुद्धि, ८ समिति-गुप्ति, २५ महाव्रत-भावना, ६ बाह्य और ६ आभ्यन्तर - ये बारह प्रकार के तप, १२ प्रतिमा, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव - ये ४ (चार) अभिग्रह - इस प्रकार कुल १०३ उत्तरगुण हैं)। मूलगुण धर्मरूप कल्पवृक्ष के मूल (जड़) के समान हैं और उत्तरगुण उसकी शाखाओं के समान हैं। प्राणातिपात-विरमणादि के एकेन्द्रिय संघट्टन (संस्पर्श) आदि अतिचार हैं ।। ३१ ।।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय, पञ्चेन्द्रिय सम्बन्धी संघट्टन, परिताप और विनाश – ये प्रथम मूलगुण के अतिचार हैं।
निद्रासम्बन्धी मृषावाद आदि दूसरे व्रत के अतिचार हैं। जैसे बैठा-बैठा कोई साधु सो रहा हो और उससे पूछा जाये कि क्या वह सो रहा है तो वह इनकार करे कि नहीं, वह सो नहीं रहा है तो उसे मृषावाद अतिचार लगता है। इसी तरह वर्षा हो रही हो और किसी साधु से पूछा जाये कि क्या वर्षा हो रही है? वह यदि कहे कि नहीं वर्षा नहीं हो रही है तो उसे मृषावाद अतिचार लगता है । ये अतिचार सूक्ष्म हैं। यदि इन्हीं अतिचारों का सेवन अभिनिवेश से हो तो बादर (स्थूल) अतिचार लगता है।
दूसरों के द्वारा नहीं दी गयी तुच्छ वस्तु लेना आदि तीसरे व्रत के अतिचार हैं। नहीं दिये गये तृण, पत्थर के छोटे टुकड़े और राख आदि लेना सूक्ष्म अतिचार है। साधर्मिक आदि के शिष्य आदि सारभूत द्रव्य का ग्रहण करना बादर अतिचार है।
गुप्ति विराधना आदि चौथे व्रत के अतिचार हैं। स्त्री आदि से युक्त बस्ती में रहना आदि सूक्ष्म अतिचार हैं। संक्लेश से हस्तमैथुन करना आदि बादर
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