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________________ २६८ पञ्चाशकप्रकरणम् एतस्मिंस्तु अतिचारारकालपठनादिका निरवशेषाः । अपुनः करणोद्यतेन संवेगादालोचयितव्या इति ।। २८ ।। उक्त पाँच प्रकार के आचारों में अकाल पठन, वाचनादाताओं के प्रति अविनय आदि सूक्ष्म और स्थूल (छोटे या बड़े) जो भी अतिचार लगे हों उन सबकी मैं ऐसी गलती फिर से नहीं करूँगा – ऐसा परिणामवाला बनकर संवेग पूर्वक ( संसार से भयभीत होकर) आलोचना करनी चाहिए ।। २८ ।। www अतिचारों का दूसरी तरह निर्देश अहवा मूलगुणाणं एते एव तह उत्तरगुणाणं । एएसिमह सरूवं पत्तेयं संपवक्खामि ।। २९ ।। मूलगुणानामेत एव तथोत्तरगुणानाम् । एतेषामथ स्वरूपं प्रत्येकं सम्प्रवक्ष्यामि ।। २९ ।। अथवा [ पञ्चदश Jain Education International महाव्रत आदि मूलगुणों और पिण्डविशुद्धि आदि उत्तरगुणों सम्बन्धी जो अतिचार हैं, उनकी उपर्युक्त प्रकार से आलोचना करनी चाहिए। अब मूलगुण - इन दोनों के अतिचारों के स्वरूप को अलग-अलग कहूँगा ।। २९ ।। उत्तरगुण और - मूलगुण, उत्तरगुण और उनके अतिचारों का स्वरूप पाणातिपातविरमणमादी णिसिभत्त- विरइपज्जंता । समणाणं मूलगुणा तिविहं तिविहेण णायव्वा ।। ३० ।। पिंडविसुद्धादीया अभिग्गहंता य उत्तरगुणत्ति । एतेसिं अइयारा एगिंदियघट्टणादीया ।। ३१ ।। पुढवादिघट्टणादी पयलादी तुच्छऽदत्त - गहणादी । गुत्ति- विराहणकप्पट्टममत्तदियगहिय- भुत्तादी ।। ३२ ।। भोगो अणेसणीऽसमियत्तं भावणाणऽभावणया । जहसत्तिं चाकरणं पडिमाण अभिग्गहाणं च ।। ३३ ।। एते इत्थऽइयारा असद्दहणादी य गरुय भावाणं । आभोगाणाभोगादिसेविया तह य ओहेणं ।। ३४ ।। निशाभक्तविरतिपर्यन्ताः । प्राणातिपात विरमणादयः श्रमणानां मूलगुणास्त्रिविधं त्रिविधेन ज्ञातव्याः ।। ३० ।। पिण्डविशुद्ध्यादयोऽभिग्रहान्ताश्च उत्तरगुणा इति । एतेषामतिचारारेकेन्द्रियघट्टनाद्याः ।। ३१ ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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