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________________ भूमिका Xxxvii की दृष्टि में ) नाम का धर्म है। वस्तुत: धर्म के नाम पर जो कुछ हुआ है और हो रहा है उसके सम्बन्ध में हरिभद्र की यह पीड़ा मर्मान्तक है । जहाँ विषय-वासनाओं का पोषण होता हो, जहाँ घृणा-द्वेष और अहंकार के तत्त्व अपनी मुट्ठी में धर्म को दबोचे हुए हों, उसे धर्म कहना धर्म की विडम्बना है । हरिभद्र की दृष्टि में वह धर्म नहीं अपितु धर्म के नाम पर धर्म का आवरण डाले हुए कुछ अन्य अर्थात् अधर्म ही है। विषय-वासनाओं और कषायों अर्थात् क्रोधादि दुष्प्रवृत्तियों के त्याग के अतिरिक्त धर्म का अन्य कोई रूप हो ही नहीं सकता है। उन सभी लोगों की, जो धर्म के नाम पर अपनी वासनाओं और अहंकार के पोषण का प्रयत्न करते हैं और मोक्ष को अपने अधिकार की वस्तु मानकर यह कहते हैं कि मोक्ष केवल हमारे धर्म-मार्ग का आचरण करने से होगा, समीक्षा करते हुए हरिभद्र यहाँ तक कह देते हैं कि धर्म-मार्ग किसी एक सम्प्रदाय की बपौती नहीं है, जो भी समभाव की साधना करेगा वह मुक्त होगा, वह चाहे श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, बौद्ध हो या अन्य कोई । वस्तुत: उस युग में जब साम्प्रदायिक दुरभिनिवेश आज की भाँति ही अपने चरम सीमा पर थे, यह कहना न केवल हरिभद्र की उदारता की सदाशयता का प्रतीक है, अपितु उनके एक क्रान्तदर्शी आचार्य होने का प्रमाण भी है। उन्होंने जैन-परम्परा के निक्षेप के सिद्धान्त को आधार बनाकर धर्म को भी चार भागों में विभाजित कर दिया - (१) नामधर्म - धर्म का वह रूप जो धर्म कहलाता है, किन्तु जिसमें धार्मिकता का कोई लक्षण नहीं है। वह धर्मतत्त्व से रहित मात्र नाम का धर्म है। (२) स्थापनाधर्म - जिन क्रियाकाण्डों को धर्म मान लिया जाता है, वे वस्तुतः धर्म नहीं धार्मिकता के परिचायक बाह्य रूप मात्र हैं। पूजा, तप आदि धर्म के प्रतीक हैं, किन्तु भावना के अभाव में वे वस्तुत: धर्म नहीं हैं। भावनारहित मात्र क्रियाकाण्ड स्थापना धर्म है। (३) द्रव्यधर्म - वे आचार-परम्पराएँ, जो कभी धर्म थीं. या धार्मिक समझी जाती थीं, किन्तु वर्तमान सन्दर्भ में धर्म नहीं हैं। सत्वशून्य १. जत्थ य विसय-कसायच्चागो मग्गो हविज्ज णो अण्णो । सम्बोधप्रकरण, १/५ पूर्वार्ध २. सेयम्बरो य आसम्बरो य बुद्धो य अहव अण्णो वा । समभावभावि अप्पा लहइ मुक्खं न संदेहो ।। वही, १/३ ३. नामाइ चउप्पभेओ भणिओ । वही, १/५ (व्याख्या लेखक की अपनी है) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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