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भूमिका
अप्रासंगिक बनी धर्म-परम्पराएँ ही द्रव्यधर्म हैं ।
(४) भावधर्म जो वस्तुतः धर्म है वही भाव धर्म है । यथा समभाव की साधना, विषयकषाय से निवृत्ति आदि भावधर्म हैं ।
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हरिभद्र धर्म के इन चार रूपों में भावधर्म को ही प्रधान मानते हैं । वे कहते हैं कि जिस प्रकार तक्रादि के संयोग, मन्थन की प्रक्रिया और अनि द्वारा परितापन के फलस्वरूप दूध में घृत प्रकट होता है, उसी प्रकार धर्ममार्ग के द्वारा दूध रूपी आत्मा घृत रूप परमात्मतत्त्व को प्राप्त होता है । वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि यह जो भावगत धर्म है, वही विशुद्धि का हेतु है । यद्यपि हरिभद्र के इस कथन का यह आशय भी नहीं लेना चाहिए कि हरिभद्र कर्मकाण्ड के पूर्णतः विरोधी हैं। उन्होंने स्वयं ही सम्बोधप्रकरण की लगभग ५०-६० गाथाओं में आत्मशुद्धि निमित्त जिनपूजा और उसमें होने वाली अशातनाओं का सुन्दर चित्रण किया है । मात्र उनका प्रतिपाद्य यह है कि इन कर्मकाण्डों का मूल्य भावना-शुद्धि के आधार पर ही निर्धारित होता है। यदि धार्मिक जीवन में वासना और कषायों का शमन और आत्म-विशुद्धि नहीं होती है तो कर्मकाण्ड का कोई मूल्य नहीं रह जाता है । वस्तुतः हरिभद्र साध्य की उपलब्धि के आधार पर ही साधन का मूल्यांकन करते हैं । वे उन विचारकों में से हैं जिन्हें धर्म के मर्म की पहचान है, अतः वे धर्म के नाम पर ढोंग, आडम्बर और लोकैषणा की पूर्ति के प्रयत्नों को कोई स्थान नहीं देना चाहते हैं । यही उनकी क्रान्तधर्मिता है ।
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हरिभद्र के युग में जैन - परम्परा में चैत्यवास का विकास हो चुका था । अपने आपको श्रमण और त्यागी कहने वाला मुनिवर्ग जिनपूजा और मन्दिर निर्माण के नाम पर न केवल परिग्रह का संचय कर रहा था, अपितु जिनद्रव्य (जिन प्रतिमा को समर्पित द्रव्य) का अपनी विषयवासनाओं की पूर्ति में उपयोग भी कर रहा था। जिन प्रतिमा और जिन-मन्दिर तथाकथित श्रमणों की ध्यान-भूमि या साधना - भूमि न बनकर भोग- भूमि बन रहे थे । हरिभद्र जैसे क्रांतदर्शी आचार्य के लिये यह सब देख पाना सम्भव नहीं था, अत: उन्होंने इसके विरोध में अपनी कलम चलाने का निर्णय लिया । वे लिखते हैं द्रव्य - पूजा तो गृहस्थों के लिये है, मुनि के लिए तो केवल भाव - पूजा है। जो केवल मुनि वेशधारी हैं, मुनि - आचार का पालन नहीं करते
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१. तक्काइ जोय करणा खोरं पयउं घयं जहा हुज्जा। सम्बोधप्रकरण, १/७ २. भावगयं तं मग्गो तस्स विसुद्धीइ हेउणो भणिया । वही, १/११ पूर्वार्द्ध ३. तम्मि य पढमे सुद्दे सव्वाणि तयणुसाराणि । वही, १/१०
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