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पञ्चाशकप्रकरणम्
[पञ्चदश
६. व्यञ्जन - सूत्र व अक्षर जिस रूप में हों उसी रूप में उन्हें लिखना या बोलना चाहिए।
७. अर्थ - सूत्रादि का जो अर्थ हो वही करना चाहिए, अन्य नहीं।
८. तदुभय - सूत्र और अर्थ - इन दोनों को न तो अशुद्ध बोलना चाहिए और न ही अशुद्ध लिखना चाहिए।
यहाँ ज्ञानाचार का तात्पर्य है - ज्ञान की आराधना करने वालों के ज्ञान-साधना सम्बन्धी व्यवहार ज्ञानाचार कहे जाते हैं ।। २३ ।।
दर्शनाचार के भेद णिस्संकिय-णिक्कंखिय-णिव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य । उववूहथिरीकरणे वच्छल्लपभावणे अट्ठ ।। २४ ।। नि:शंकित-निष्कांक्षित-निर्विचिकित्सा अमूढदृष्टिश्च । उपबृंहस्थिरीकरणयोः
वत्सलप्रभावनयोरष्ट ।। २४ ।। दर्शनाचार के निम्न आठ प्रकार हैं - (१) नि:शंकित : जिनवचन में शंका नहीं करनी चाहिए, (२) निष्कांक्षित : अन्य दर्शन अथवा कर्मफल की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए, (३) निर्विचिकित्सा : सदाचार के फल के प्रति शंका का अभाव, (४) अमूढदृष्टि : अन्य धर्मों का चमत्कार देखकर भ्रमित नहीं होना, (५) उपबृंहणा : स्वधर्मी भाइयों के गुणों की प्रशंसा करना, (६) स्थिरीकरण : धर्म में प्रमाद करने वाले को धर्म में स्थिर करना, (७) वात्सल्य : साधर्मिक का प्रेमपूर्वक कार्य करना, ८. प्रभावना : श्रुतज्ञानादि से. जैनशासन की प्रभावना करना।
दर्शन ( जिनवचन में श्रद्धा ) सम्बन्धी आचार-व्यवहार दर्शनाचार कहलाता है ॥ २४ ।।
चारित्राचार के भेद पणिहाणजोगजुत्तो पंचहिँ समितीहिँ तीहिँ गुत्तीहिँ । एस चरित्तायारो अट्ठविहो होइ । णायव्वो ॥ २५ ॥ प्रणिधानयोगयुक्तः पञ्चसु समितिषु तिसृषु गुप्तिषु । एषश्चारित्राचारो अष्टविधो भवति ज्ञातव्यः ॥ २५ ।।
प्रणिधान का अर्थ है मन की एकाग्रता और योग का अर्थ है व्यापार। मन की एकाग्रतारूप व्यापार प्रणिधानयोग कहा जाता है। एक अन्य अपेक्षा से १. 'समितिहिँ' इति पाठान्तरम् ।
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