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पञ्चदश ]
आलोचनाविधि पञ्चाशक
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द्रव्य से दूध युक्त वृक्ष आदि प्रशस्त द्रव्य हैं, क्षेत्र में जिनमन्दिर आदि प्रशस्त क्षेत्र हैं, काल में पूर्णिमा आदि शुभ तिथियों के दिन शुभ-काल हैं और भाव में शुभोपयोग (प्रशस्त अध्यवसाय) आदि शुभभाव हैं ॥ २० ॥
___ शुभ द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के योग में प्राय: भावों की शुद्धि होती है, इसलिए शुभ द्रव्यादि का अनुसरण करने का प्रयत्न करना चाहिए - यही तीर्थङ्करों की आज्ञा है ।। २१ ।।
आलोचनीय दोषों का निर्देश आलोएयव्वा पुण अइयारा सुहुमबायरा सम्मं । णाणायारादिगया पंचविहो सो य विण्णेओ ।। २२ ।। आलोचयितव्याः पुनरतिचारा: सूक्ष्मबादरा: सम्यक् । ज्ञानाचारादिगताः पञ्चविधः स च विज्ञेयः ।। २२ ।।
ज्ञानादि आचार सम्बन्धी सभी छोटे-बड़े अतिचारों की अच्छी तरह आलोचना करनी चाहिए। उस आचार के ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य - ये पाँच भेद हैं ।। २२ ॥
ज्ञानाचार के भेद काले विणए बहुमाणे उवहाणे तहा अणिण्हवणे । वंजणअत्थतदुभए अट्ठविहो णाणमायारो ।। २३ ।। काले विनये बहुमाने उपधाने तथा अनिह्नवने । व्यञ्जनार्थतदुभये अष्टविधो ज्ञानमाचारः ।। २३ ।।
ज्ञानाचार के काल, विनय, बहुमान, उपधान, अनिह्नव, व्यञ्जन, अर्थ और तदुभय (व्यञ्जनार्थ) - ये आठ प्रकार हैं :
१. काल- स्वाध्याय के समय स्वाध्याय करना काल सम्बन्धी ज्ञानाचार है। अकाल में पढ़ने से उपद्रव होता है।
२. विनय - ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञान के उपकरण पुस्तकादि की उपचार रूप से विनय करनी चाहिए।
__ ३. बहुमान - ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञान के उपकरण पुस्तकादि के प्रति प्रेम होना चाहिए।
४. उपधान – तपपूर्वक अध्ययन करना चाहिए।
५. अनिह्नव - श्रुत का अपलाप अर्थात् सत्य को छिपाने रूप कार्य नहीं करना चाहिए।
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