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पञ्चाशकप्रकरणम्
[पञ्चदश
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क्रम कहलाता है।
___ गीतार्थ विकट-आलोचना क्रम से ही आलोचना करे, क्योंकि वह आलोचना के क्रम का जानकार होता है। अगीतार्थ आसेवन क्रम से आलोचना करे, क्योंकि उसे आलोचना क्रम का ज्ञान नहीं है और आसेवनाक्रम से दोषों को अच्छी तरह याद रख सकता है ।। १७ ।।
चौथा द्वार ‘भाव प्रकाशन' का निरूपण तह आउट्टियदप्पप्पमायओ कप्पओ व जयणाए । कज्जे वाऽजयणाए जहट्ठियं सव्वमालोए ॥ १८ ॥ .
. पलानो ता यतनया। तथाऽऽकुट्टिका-दर्पप्रमादत: कल्पतो वा यतनया । कार्ये वाऽयतनया यथास्थितं सर्वमालोचयेत् ॥ १८ ।।
संकल्पपूर्वक, प्रमादवश, संयम की रक्षा हेतु यतनापूर्वक, कल्पपूर्वक (विशिष्ट आलम्बन के द्वारा), सम्भ्रम के कारण सारासार का विवेक किये बिना अथवा अयतनापूर्वक - इस प्रकार जिस भाव से जो कार्य किया हो - वह सब गुरु से यथास्वरूप (कुछ भी छिपाये बिना) निवेदन कर देना चाहिए ।। १८ ।।
पाँचवाँ द्वार 'द्रव्यादिशुद्धि' का विवरण दव्वादीसु सुहेसुं देया आलोयणा जतो तेसुं । होति सुहभाववुड्डी पाएण सुहा उ सुहहेऊ ।। १९ ।। दव्वे खीरदुमादी जिणभवणादी य होइ खेत्तम्मि । पुण्णतिहि-पभिति-काले सुहोवओगादि भावे उ ॥ २० ॥ सुहदव्वादिसमुदए पायं जं होइ भावसुद्धित्ति । ता एयम्मि जएज्जा एसा आणा जिणवराणं ॥ २१ ॥ द्रव्यादिषु शुभेषु देया आलोचना यतस्तेषु । भवति शुभभाववृद्धिः प्रायेण शुभास्तु शुभहेतवः ।। १९ ।। द्रव्ये क्षीरद्रुमादि-जिनभवनादि च भवति क्षेत्रे । पुण्यतिथिप्रभृतिकाले शुभोपयोगादि भावे तु ।। २० ॥ शुभद्रव्यादिसमुदये प्रायः यद्भवति भावशुद्धिरिति । तदेतस्मिन् यतेत एषा आज्ञा जिनवराणाम् ।। २१ ।।
प्रशस्त द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में आलोचना करनी चाहिए। प्रशस्त द्रव्यक्षेत्र-काल भाव में आलोचना करने से शुभभावों की वृद्धि होती है, क्योंकि शुभ के कारण प्रायः शुभ ही हुआ करते हैं ।। १९ ॥
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