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________________ पञ्चदश] आलोचनाविधि पञ्चाशक २६१ तविहिसमुस्सुगो खलु अभिग्गहासेवणादिलिंगजुतो । आलोयणापयाणे जोग्गो भणितो जिणिंदेहिं ।। १३ ।। संविग्नस्तु अमायी मतिमान् कल्पस्थितोऽनाशंसी । प्रज्ञापनीयः श्राद्ध आज्ञावान् दुष्कृततापी ।। १२ ।। तद्विधिसमुत्सुकः खलु अभिग्रहासेवनादिलिङ्गयुतः । आलोचनाप्रदाने योग्यो भणितो जिनेन्द्रैः ।। १३ ।। तीर्थङ्करों ने संविग्न (संसार से भयभीत), मायारहित, विद्वान्, कल्पस्थित, अनाशंसी, प्रज्ञापनीय, श्रद्धालु, आज्ञावान्, दुष्कृततापी (अतिचार लग जाने पर पश्चात्ताप करने वाला), आलोचनाविधि समुत्सुक और अभिग्रह आसेवना आदि लक्षणोंयुक्त साधु को आलोचना करने के योग्य कहा है ।। १३ ।। १. संविन (संसारभीरु) - संसारभीरु को ही दुष्कर कार्य करने का भाव होता है। आलोचना दुष्कर कार्य है, अत: आलोचना करने वाले साधु को संविन कहा है। २. मायारहित - मायावी दुष्कृत्यों को अच्छी तरह प्रकट नहीं कर सकता है, इसलिए आलोचना करने वाले साधु का मायारहित होना आवश्यक है। ३. विद्वान् – अज्ञानी जीव आलोचनादि के स्वरूप को अच्छी तरह समझ नहीं सकता है। अत: आलोचक को विद्वान् होना चाहिए। ४. कल्पस्थित - स्थविरकल्प, जातकल्प, समाप्तकल्प आदि में स्थित। ५. अनाशंसी - अपने स्वार्थ के लिए आचार्य आदि को अपने अनुकूल करने की आशंसा से रहित। आशंसा वाले जीव की सम्पूर्ण आलोचना नहीं होती, क्योंकि आशंसा भी अतिचार है। ६. प्रज्ञापनीय - जिसे आसानी से समझाया जा सके। अप्रज्ञापनीय जीव अपनी मान्यता नहीं छोड़ता, इसलिए उसे दुष्कृत्यों से रोका नहीं जा सकता ७. श्रद्धालु - गुरु के प्रति श्रद्धावान् अर्थात् जो गुरु के द्वारा कही गयी शुद्धि पर श्रद्धा करता है। ८. आज्ञावान् - आप्तोपदेशानुसार प्रवर्तमान। ऐसा जीव प्राय: दुष्कृत्य करता ही नहीं है। ९. दुष्कृततापी - अतिचारों का सेवन होने पर पश्चात्ताप करने वाला। दुष्कृततापी जीव ही आलोचना करने में समर्थ होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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