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पञ्चाशकप्रकरणम्
[पञ्चदश
१०. आलोचना विधि समुत्सुक - आलोचना की विधि की इच्छा वाला। ऐसा जीव आलोचना में अविधि का त्याग सावधानीपूर्वक करता है।
११. अभिग्रह आसेवनादि लक्षणों से युक्त – आलोचना की योग्यता के सूचक नियम द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के अनुसार लेना, दूसरों को दिलाना, लेने वालों की अनुमोदना करना आदि लक्षणों से युक्त होना ।। १२-१३ ।।
द्वितीय द्वार 'योग्य गुरु' का विवेचन आयारवमोहारवववहारोवीलए पकुव्वी य । णिज्जव अवायदंसी अपरिस्सावी य बोद्धव्वो ।। १४ ।। तह परहियम्मि जुत्तो विसेसओ सुहुमभावकुसलमती । भावाणुमाणवं तह जोग्गो आलोयणायरिओ ॥ १५ ।। आचारवानवधार-व्यवहारवानपव्रीडकः प्रकुर्वी च । निर्यापको अपायदर्शी अपरिश्रावी च बोद्धव्यः ।। १४ ।। तथा परहिते युक्तः विशेषतः सूक्ष्मभावकुशलमतिः । भावानुमानवांस्तथा योग्य आलोचनाचार्य: ।। १५ ।।
आचारवान्, अवधारवान्, व्यवहारवान्, अपव्रीडक, प्रकुर्वी, निर्यापक, अपायदर्शी, अपरिश्रावी, परहितोद्यत, सूक्ष्मभावकुशलमति, भावानुमानवान् आलोचनाचार्य (योग्य गुरु) आलोचना देने के योग्य हैं।
विशेष : १. आचारवान् – जिसे ज्ञानाचारादि पाँच आचारों का ज्ञान है। और उनका पालन करता हो वह आचारवान् है। ऐसे गुरु के वचन ही श्रद्धा करने योग्य होते हैं।
२. अवधारवान् - आलोचना करने वाले साधु के द्वारा कहे हुए अपराधों को सुनकर प्रकट नहीं करने वाला। ऐसा गुरु अच्छी तरह प्रायश्चित्त दे सकता है।
३. व्यवहारवान् - आगम, श्रुत, आज्ञा, धारण और जीत - इन र व्यवहारों को जानने वाला। ऐसा गुरु शुद्धि करने में समर्थ होता है।
४. अपव्रीडक - लज्जावश अतिचारों को छिपाने वाले शिष्यों को लज्जारहित बनाने वाला। ऐसा गुरु आलोचक का बहुत बड़ा उपकारी होता है:
५. प्रकुर्वी - प्रकट किये गये अतिचारों का प्रायश्चित्त देकर विशुद्धि कराने वाला।
६. निर्यापक - साधु का प्रायश्चित्त पूरा करने वाला। ऐसा गुरु साधु से
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