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________________ [ पञ्चदश जिनेन्द्रदेव ने इस आलोचना का काल पक्ष (पन्द्रह दिन), चार महीना आदि कहा है। पूर्वाचार्य भद्रबाहु आदि ने भी इसे इसी प्रकार कहा है। २६० पञ्चाशकप्रकरणम् सामान्य आलोचना तो प्रतिदिन प्रतिक्रमण में सुबह-शाम की जाती है। पक्षादि काल प्रायः विशेष आलोचना का है। कोई विशिष्ट अपराध हुआ हो तो उसकी समय- विशेष में आलोचना करे अर्थात् बीमारी से उठा हो या लम्बा विहार किया हो तो इन कारणों से पक्षादि में आलोचना करे । इसलिए यहाँ प्राय: कहा गया है ।। ९ ।। भद्रबाहु स्वामी का वचन पक्खियचाउम्मासे आलोयण णियमसा उ गहणं अभिग्गहाण य पुव्वग्गहिए पाक्षिकचातुर्मासे आलोचना नियमेनैव तु ग्रहणमभिग्रहाणाञ्च पूर्वगृहीतान् पूर्णिमा या अमावस्यारूप पाक्षिकपर्व या चातुर्मासपर्व में आलोचना अवश्य करनी चाहिए तथा पहले लिए गये अभिग्रहों को गुरु से निवेदन करके नये अभिग्रहों को ग्रहण करना चाहिए ।। १० ॥ पाक्षिक आदि में आलोचना करने का कारण जीयमिणं आणाओ जयमाणस्सवि य दोससब्भावा । पम्हुसणपमायाओ जलकुंभमलादिणाएणं ॥ ११ ॥ यतमानस्यापि च दोषसद्भावात् । जीतमिदमाज्ञातो विस्मरणप्रमादाभ्यां अतिचार न लगा हो तो भी ओघ अर्थात् सामान्य रूप से पाक्षिकादि में पूर्वमुनियों ने आलोचना की है। अतः पाक्षिकादि में आलोचना करना जिनाज्ञा है । जिस प्रकार जल का घड़ा प्रतिदिन साफ करने पर भी उसमें थोड़ी गन्दगी रह जाती है, अथवा घर को प्रतिदिन साफ करने पर भी उसमें थोड़ी धूल रह जाती. है, उसी प्रकार संयम में प्रयत्नशील साधक को विस्मरण और प्रमाद के कारण अतिचार लगना सम्भव है। इसलिए उपर्युक्त कारणों से पाक्षिकादि पर्वों में आलोचना अवश्य करनी चाहिए ।। ११ ।। Jain Education International दायव्वा । णिवेएउं ॥ १० ॥ दातव्या । निवेद्य ॥ १० ॥ जलकुम्भमलादिज्ञातेन ॥। ११ ॥ प्रथम द्वार 'योग्य' का विवरण संविग्गो उ अमाई मइमं कप्पट्टिओ पण्णवणिज्जो सद्धो आणाइत्तो अणासंसी । दुकडावी ।। १२ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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