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पञ्चदश]
आलोचनाविधि पञ्चाशक
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और उसके अभाव में आलोचना उसी प्रकार निष्फल या अनर्थकारी होती है, जिस प्रकार कुवैद्य यदि रोगचिकित्सा करे अथवा अविधि से विद्या की साधना की जाये तो वह निष्फल होती है । कदाचित् वह चिकित्सा या साधना सफल भी हो सकती है, किन्तु विधिरहित आलोचना से कभी भी सिद्धि नहीं मिलती है, क्योंकि अविधिपूर्वक आलोचना करने पर जिन-आज्ञा का भंग होता है ।। ५ ।।
तीर्थङ्करों की आज्ञा का विधिपूर्वक भाव सहित पालन करना चाहिए। उनकी आज्ञा का पालन विधिवत् नहीं करने पर मोहवश चित्त अत्यधिक संक्लेश अर्थात् मलिनता को प्राप्त होता है ।। ६ ।।
संक्लेश से अशुभकर्मों का बन्ध होता है तथा दुष्कृत्य सेवन के कारणभूत संक्लेश से युक्त होकर आलोचना करने से संक्लेश ही अधिक होता है, कम संक्लेश से हुआ कर्मबन्ध अधिक संक्लेश से दूर नहीं होता। जिस प्रकार अल्प मलिनवस्त्र वस्त्र को अधिक मलिन करने वाले पदार्थों जैसे नीलीरस (नीले रंग युक्त कोई पदार्थ) अथवा रक्त आदि से शुद्ध नहीं होता, उसी प्रकार कम संक्लेश से हुए कर्मबन्ध का उससे अधिक कर्मबन्ध करने वाले तथा जिनाज्ञा भंग करने वाले संक्लेश से नाश नहीं होता है ।। ७ ॥
आलोचना करने की विधि एत्थं पुण एस विही अरिहो अरिहंमि दलयति कमेणं । आसेवणादिणा खलु सम्मं दव्वादिसुद्धीए ।। ८ ।। अत्र पुनरेष विधिः अर्हरहें ददाति क्रमेण ।। आसेवनादिना खलु सम्यग् द्रव्यादिशुद्धौ ॥ ८ ॥
आलोचना के योग्य व्यक्ति को योग्य गुरु के पास आसेवनादि के क्रम से आकुट्टिका आदि भावपूर्वक जो दुष्कृत्य किया हो उसका प्रकाशन करते हुए प्रशस्त द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से आलोचना करनी चाहिए ॥ ८ ॥
विशेष : यह द्वारगाथा है। इसमें आलोचना योग्य व्यक्ति, योग्य गुरु, क्रम, भावप्रकाशन और द्रव्यादिशुद्धि - ये पाँच द्वार हैं। इनका विवेचन १२वीं गाथा से क्रमश: किया जायेगा।
__ आलोचना का काल कालो पुण एतीए पक्खादी वण्णितो जिणिंदेहिं । पायं विसिट्ठगाए पुव्वायरिया तथा चाहु ।। ९ ।। काल: पुनरेतस्याः पक्षादिर्वर्णितो जिनेन्द्रैः । प्रायो विशिष्टाकायाः पूर्वाचार्यास्तथा चाहुः ।। ९ ॥
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