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________________ पञ्चाशकप्रकरणम् आसेवितेऽपि अकृत्ये अनाभोगादिभिः भवति संवेगात् । अनुतापः ततः खलु एषा सफला ज्ञातव्या ।। ३ ॥ आलोचना में अज्ञानता आदि के कारण दुष्कृत्य का सेवन करने पर भी संसार के भय से उस दुष्कृत्य के लिए पश्चात्ताप होता है, इसलिए आलोचना सार्थक है || ३ || २५८ विशेष : दुष्कृत्य के निम्न कारण हैं। प्रेरणा, आपत्ति, रोग, मोह और रागद्वेष । [ पञ्चदश सहसा, अज्ञान, भय, दूसरे की पश्चात्ताप से आलोचना की सफलता का कारण जह संकिलेसओ इह बंधो वोदाणओ तहा विगमो । तं पुण इमीऍ णियमा विहिणा सइ सुप्पउत्ताए || ४ || यथा संक्लेशत इह बन्धो व्यपदानतस्तथा विगमः । तत्पुनरनया नियमाद्विधिना सकृत् सुप्रयुक्तया ।। ४ ॥ जिस प्रकार रागादि रूप चित्त की मलिनता के कारण दुष्कृत्य का सेवन करने पर अशुभकर्म का बन्ध होता है, उसी प्रकार पश्चात्ताप रूप चित्तविशुद्धि के कारण उस अशुभकर्म का क्षय होता है। आगे कही जाने वाली विधि से भावपूर्वक की गयी आलोचना द्वारा चित्त की विशुद्धि अवश्य ही होती है ।। ४ ।। Jain Education International विधिरहित आलोचना से विशुद्धि नहीं इहरा विवज्जओऽवि हु कुवेज्जकिरियादिणायतो अवि होज्ज तत्थ सिद्धी आणाभंगा न उण तित्थगराणं आणा सम्मं विहिणा उ होइ तस्सऽण्णहा उ करणे बंधो य संकिलेसा ततो ण सोऽवेति ईसिमलिणं ण वत्थं सुज्झइ इतरथा विपर्ययोऽपि खलु कुवैद्यक्रियादिज्ञाततो अपि भवेत्तत्र सिद्धिराज्ञाभंगान तीर्थङ्कराणामाज्ञा सम्यग्विधिना तु भवति तस्याऽन्यथा तु करणे मोहादतिसंक्लेश बन्धश्च संक्लेशात्ततो न स अपैति तीव्रतरकात् । नीलीरसादिभिः ॥ ७ ॥ इति ॥ ६ ॥ ईषन्मलिनन्न वस्त्रं शुद्धयति किन्तु विधिपूर्वक आलोचना नहीं करने पर चित्तविशुद्धि नहीं होती है For Private & Personal Use Only णेओ । एत्थ ॥ ५ ॥ कायव्वा । मोहादतिसंकिलेसोत्ति ॥ ६ ॥ तिव्वतरगाओ । नीलीरसादीहिं ॥ ७ ॥ ज्ञेयः । पुनरत्र ।। ५ ।। कर्तव्या । www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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