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१५ आलोचनाविधि पञ्चाशक __ चौदहवें पञ्चाशक में शीलाङ्गों का विवेचन किया गया है । यदि किसी कारणवश शीलाङ्गों का अतिक्रमण हो जाये तो उसकी शुद्धि के लिए आलोचना करनी पड़ती है। इसलिए आलोचना का विवेचन करने हेतु सर्वप्रथम मङ्गलाचरण करते हैं -
मङ्गलाचरण नमिऊण तिलोगगुरुं वीरं सम्मं समासओ वोच्छं । आलोयणाविहाणं जतीण सुत्ताणुसारेणं ।। १ ॥ नत्वा त्रिलोकगुरुं वीरं सम्यक् समासतो वक्ष्ये । आलोचनाविधानं . यतीनां सूत्रानुसारेण ॥ १ ॥
तीनों लोकों के गुरु भगवान् महावीर को सम्यक् प्रकार से नमस्कार करके साधुओं की आलोचनाविधि को संक्षेप में आगमानुसार कहूँगा ।। १ ।।
विशेष : श्रावक सम्बन्धी आलोचनाविधि का वर्णन पहले पञ्चाशक की नौवीं गाथा में कर दिया गया है।
आलोचना शब्द का अर्थ आलोयणं अकिच्चे अभिविहिणा दंसणंति लिंगेहिं । वइमादिएहिं सम्मं गुरुणो आलोयणा णेया ॥ २ ॥ आलोचनमकृत्ये अभिविधिना दर्शनमिति लिङ्गैः । वागादिभिः सम्यग् गुरोरालोचना ज्ञेया ।। २ ।।
अपने दुष्कृत्यों को गुरु के समक्ष विशुद्धभाव से बिना कुछ भी छिपाये पूर्णतया वाणी आदि से प्रकाशित करना आलोचना है ।। २ ।।
आलोचना से लाभ आसेवितेऽवि'ऽकिच्चेऽणाभोगादीहिं होति संवेगा ।
अणुतावो तत्तो खलु एसा सफला मुणेयव्वा ।। ३ ॥ १. 'ऽव' इति मूलपाठः।
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