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________________ २५४ पञ्चाशकप्रकरणम् [ चतुर्दश ॥ १ - स्तुत विषय का आधाकर्म आहार आदि हैं। यहाँ अनन्तरोक्त कषादि परीक्षाओं से साधु की परीक्षा - करनी चाहिए ॥ ४३ ।। सूत्रों में कहे हुए साधुगुणों से ही साधु बना जा सकता है तम्हा जे इह सुत्ते साहुगुणा तेहिँ होइ सो साहू । अच्चंतसुपरिसुद्धेहिँ मोक्खसिद्धित्ति काऊणं ।। ४४ ।। तस्माद्य इह सूत्रे साधुगुणास्तैर्भवति स: साधुः । अत्यन्तसुपरिशुद्धैः मोक्षसिद्धिरिति कृत्वा ॥ ४४ ।। साधुगुणों से रहित साधु वास्तविक साधु नहीं होता है, अपितु आगम में कहे हुए साधुगुणों के पालन से वास्तविक साधु हो सकता है, क्योंकि आगमोक्त साधुगुण अत्यन्त शुद्ध हैं और अत्यन्त शुद्ध साधुगुणों से ही मोक्ष की प्राप्ति होती . है। इसीलिए आगम में कहे हुए साधुगुणों का पालन करके ही वास्तविक साधु बना जा सकता है - ऐसा कहा गया है ।। ४४ ॥ प्रस्तुत विषय का उपसंहार अलमेत्थ पसंगेणं सीलंगाइं हवंति एमेव । भावसमणाण सम्मं अखंडचारित्तजुत्ताणं ।। ४५ ।। अलमत्र प्रसङ्गेन शीलाङ्गानि भवन्ति एवमेव । भावश्रमणानां सम्यगखण्ड-चारित्रयुक्तानाम् ।। ४५ ।। , शीलाङ्गों के सन्दर्भ में प्रासंगिक वर्णन यहाँ पूरा होता है। अखंडचारित्र युक्त भावसाधुओं के शीलांग उपर्युक्त रीति से पूर्ण अर्थात् अठारह हजार में एक भी कम नहीं होते हैं ।। ४५ ।। शीलांगयुक्त साधुओं को मिलने वाला फल इय सीलंगजुया खलु दुक्खंतकरा जिणेहिँ पण्णत्ता । भावपहाणा साहू ण तु अण्णे दव्वलिंगधरा ।। ४६ ।। इति शीलाङ्गयुताः खलु दुःखान्तकरा: जिनैः प्रज्ञप्ताः । भावप्रधानाः साधवो न तु अन्ये द्रव्यलिङ्गधराः ।। ४६ ।। .. इस प्रकार सम्पूर्ण शीलाङ्गों युक्त शुभ अध्यवसाय वाले साधु ही सांसारिक दुःख का अन्त (नाश) करते हैं, अन्य द्रव्यलिंगी (शुभ अध्यवसाय रहित केवल साधु वेश धारण करने वाले) साधु नहीं - ऐसा जिनेन्द्रदेवों ने कहा है ।। ४६ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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