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चतुर्दश ]
शीलाङ्गविधानविधि पञ्चाशक
य इह सूत्रे भणिताः साधुगुणास्तैः भवति सः साधुः । जात्यसुवर्णक इव सति
वर्णेन
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जैसे पीला सोना विषघात आदि गुणों से युक्त हो तो ही वास्तविक सोना है, उसी प्रकार शास्त्रोक्त साधु-गुणों से युक्त साधु ही वास्तविक साधु है ।। ४० ।।
भिक्षाटन करने से ही साधु नहीं बना जाता
जो साहू गुणरहिओ भिक्खं हिंडेति ण होति सो साहू | वण्णेणं जुत्तिसुवण्णगव्वऽसंते गुणिहि ॥ ४१ ॥ यः साधुः गुणरहितो भिक्षां हिंडते न भवति सः साधुः । वर्णेन युक्तिसुवर्णक इव असति गुणनिधौ । ४१ ।। जैसे विषघातादि गुणों से रहित नकली सोना स्वर्णिम रंग मात्र से असली सोना नहीं कहा जा सकता है, उसी प्रकार साधु के गुणों से रहित साधु भिक्षार्थ घूमने मात्र से वास्तविक साधु नहीं कहा जा सकता है ।। ४१ ।।
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।। ४० ।।
गुणरहित साधु का वर्णन
करोति ।
उद्दिकड भुंजति छक्कायपमद्दणो घरं पच्चक्खं च जलगते जो पियइ कह णु सो उद्दिष्टकृतं भुंक्ते षट्कायप्रमर्दनो गृहं प्रत्यक्षञ्च जलगतान् यः पिबति कथं नु सः साधुः ।। ४२ ॥ जो निश्चय से औद्देशिक आधाकर्म आदि दोषयुक्त आहार करता है, वह निश्चय ही पृथ्वी आदि षट्काय के जीवों की हिंसा करता है, जिन-भवन आदि के बहाने निश्चयपूर्वक घर बनवाता है तथा जानते हुए भी सचित्त जल पीता है, वह साधु कैसे हो सकता है अर्थात् कदापि नहीं हो सकता है ।। ४२ ।।
कुणति ।
साहू ? ।। ४२ ।।
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X साधु-सम्बन्धी कषादि परीक्षाविषयक मतान्तर
णायव्वा ।
अन्ने उ कसादीया किल एते एत्थ होति एताहिँ परिक्खाहिं साहुपरिक्खेह
कायव्वा ।। ४३ ।।
अन्ये तु कषादयः किल एतेऽत्र भवन्ति ज्ञातव्याः । एताभिः परीक्षाभिः साधुपरीक्षेह
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कर्तव्या ॥ ४३ ॥
X दूसरे कुछ आचार्य कहते हैं कि साधु के सन्दर्भ में कष आदि क्रमशः
१. 'उद्दित्थकडं' इति पाठान्तरम् ।
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