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पञ्चाशकप्रकरणम्
- [चतुर्दश
यत एव निर्दिष्टं पूर्वाचार्यै: भावसाधुरिति । हंदि प्रमाणस्थितार्थः तच्च प्रमाणमिदं भवति ।। ३० ।। शास्त्रोक्तगुण: साधु: न शेष इह नः प्रतिज्ञा इह हेतुः । अगुणत्वादिह ज्ञेयो दृष्टान्तः पुनः सुवर्णवत् ।। ३१ ॥
शील दुर्धर होता है, इसलिए भद्रबाहु स्वामी आदि पूर्वोचार्यों ने भावसाधु का निर्णय अनुमान प्रमाण से होता है - ऐसा कहा है। वह अनुमान प्रमाण इस प्रकार है ।। ३० ।।
आगमोक्त गुणों से युक्त साधु ही साधु है। आगमोक्त गुणों से रहित साधु साधु नहीं है - यह हमारा पक्ष (प्रतिज्ञा) है। 'शास्त्रोक्त गुणों से रहित होने से यह पक्ष में हेतु है। यहाँ सुवर्ण की तरह दृष्टान्त समझना चाहिए । अर्थात् जिस प्रकार सुवर्ण के गुणों से रहित सुवर्ण वास्तविक सुवर्ण नहीं है, उसी प्रकार साधु के गुणों से रहित साधु वास्तविक साधु नहीं है ।। ३१ ।।
___ सुवर्ण के गुण विसघाइ-रसायण-मंगलट्ठ-विणए पयाहिणावत्ते । गरुए अडज्झ-कुत्थे, अट्ठ सुवण्णे गुणा होति ।। ३२ ।। विषघाती-रसायन-मङ्गलार्थ-विनयं प्रदक्षिणावर्तम् । गुरुकमदाह्य-अकुत्स्यमष्टौ सुवर्णे गुणाः भवन्ति ।। ३२ ॥ ..
१. विषघाती - विषनाशक, २. रसायन - वृद्धावस्था को प्रतीत नहीं होने देने वाला, ३. मंगलकारी, ४. विनीत - कंगन आदि आभूषण बनाने के लिए अपेक्षित लचीलापन, ५. प्रदक्षिणावर्त - अग्निताप से दायीं ओर से गोल घूमने वाला, ६. गुरुक-भारयुक्त, ७. अदाह्य - अग्नि से जल न सके ऐसा और ८. अकुत्स्य - दुर्गन्धरहित - ये आठ गुण स्वर्ण में होते हैं ।। ३२ ।।.
इसी प्रकार साधु के भी आठ गुण इय मोहविसं घायइ सिवोवएसा रसायणं होति । गुणओ य मंगलटुं कुणति विणीओ य जोग्गोत्ति ।। ३३ ।। मग्गणुसारि पयाहिण गंभीरो गरुयओ तहा होइ । कोहग्गिणा अडज्झोऽकुत्थो सइ सीलभावेणं ॥ ३४ ॥ इति मोहविषं घातयति शिवोपदेशाद्रसायनं भवति । गुणतश्च मंगलार्थं करोति विनीतश्च योग्य इति । ३३ ।।
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