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पञ्चाशकप्रकरणम्
[ चतुर्दश
तथा कोई रोकने वाला न होने से) चारित्र परिशुद्ध नहीं बनता है, इसीलिए गीतार्थ और गीतार्थ सहित - इन दो का विहार कहा है ।। २२ ।।
उपर्युक्त विषय का प्रस्तुत प्रकरण में घटन ता एव विरतिभावो संपुण्णो एत्थ होइ णायव्वो । णियमेणं अट्ठारससीलंग- सहस्सरूवो उ ।। २३ ।। तदेव विरतिभावः सम्पूर्णोऽत्र भवति ज्ञातव्यः । नियमेन
अष्टादश-शीलाङ्ग-सहस्ररूपस्तु ।। २३ ।। " (इसलिए आज्ञापरतन्त्र की बाह्य-प्रवृत्ति विरति को बाधित नहीं करती है, इस नियम से यहाँ अठारह हजार शीलाङ्ग परिमाण ही सम्पूर्ण सर्वविरति का भाव ' है ।। २३ ।। ११७८
शीलाङ्ग एक भी कम नहीं होते - इसका आगम से समर्थन ऊणत्तं ण कयाइवि इमाण संखं इमं तु अहिकिच्च । जं एयधरा सुत्ते णिद्दिट्ठा वंदणिज्जा उ ॥ २४ ॥ ऊनत्वं न कदाचिदपि एषां संख्याम् इमां तु अधिकृत्य । यदेतद्धराः सूत्रे निर्दिष्टा वन्दनीयास्तु ॥ २४ ॥
शीलाङ्गों की अठारह हजार की संख्या में से कभी भी एकादि कम नहीं होता है, क्योंकि प्रतिक्रमण सूत्र में अठारह हजार शीलाङ्गों को धारण करने वालों को ही वन्दनीय कहा गया है, अन्यों को नहीं ।। २४ ॥
शीलाङ्गों का पालन कोई महान् ही कर सकता है, सभी नहीं ता संसारविरत्तो अणंतमरणादिरूवमेयं तु । णाउं एयविउत्तं मोक्खं च गुरूवएसेणं ।। २५ ॥ परमगुरुणो य अहणे आणाएँ गुणे तहेव दोसे य । मोक्खट्ठी पडिवज्जिय भावेण इमं विसुद्धणं ।। २६ ॥ विहिताणुट्ठाणपरो सत्तऽणुरूवमियरंपि संधेतो । अण्णत्थ अणुवओगा खवयंतो कम्मदोसेवि ॥ २७ ॥ सव्वत्थ णिरभिसंगो आणामेत्तम्मि सव्वहा जुत्तो । एगग्गमणो धणियं तम्मि तहाऽमूढलक्खो य ।। २८ ।। तह तइलपत्तिधारगणायगओ राहवेहगगओ वा। एयं चएइ काउं ण उ अण्णो खुद्दसत्तोत्ति ॥ २९ ।।
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