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चतुर्दश ]
शीलाङ्गविधानविधि पञ्चाशक
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सके ऐसी है, क्योंकि विरुद्धप्रवृत्ति करने वाला साधु अभिनिवेशरहित होने के कारण गीतार्थ वचन स्वीकार कर सूत्रानुसारी प्रवृत्ति करता है ।। १८ ।।
अप्रज्ञापनीय की सूत्रविरुद्ध प्रवृत्ति अभिनिवेश वाली (अशुभ कर्म बन्ध करनेवाली) होने के कारण सानुबन्ध (रोकी न जा सके - ऐसी) है, क्योंकि गीतार्थ के रोकने पर भी उसके वचन को स्वीकार नहीं करने के कारण आगमसम्मत प्रवृत्ति नहीं करता है। यह अप्रज्ञापनीय सूत्रविरुद्ध प्रवृत्ति मूल से चारित्र का अभाव हुए बिना नहीं होती, इसीलिए पूज्यपाद आर्य श्री भद्रबाहु स्वामी ने कहा
गीयत्थो य विहारो बीओ गीयत्थमीसओ भणितो । एतो तइयविहारो णाणुण्णाओ जिणवरेहिं ।। २० ।। गीतार्थश्च विहारो द्वितीयो गीतार्थमिश्रको भणितः । इत: तृतीयविहारो नानुज्ञातो जिनवरैः ।। २० ।।
जिनेन्द्रदेव ने एक गीतार्थ (बहुश्रुत) का विहार और दूसरा गीतार्थ के आश्रित अगीतार्थ का विहार – ये दो विहार कहे हैं। इनके अतिरिक्त कोई तीसरा विहार नहीं कहा है ।। २० ॥
भद्रबाहु स्वामी के उक्त वचन का समर्थन गीयस्स ण उस्सुत्ता तज्जुत्तस्सेयरस्सवि तहेव । णियमेण चरणवं जं ण जाउ आणं विलंघेइ ।। २१ ॥ ण य तज्जुत्तो अण्णं ण णिवारइ जोग्गयं मुणेऊणं । एवं दोण्हवि चरणं परिसुद्धं अण्णहा णेव ॥ २२ ॥ गीतस्य न उत्सूत्रा तद्युक्तस्येतरस्यापि तथैव । नियमेन चरणवान् यन्न जातु आज्ञां विलक्यति ।। २१ ।। न च तद्युक्तोऽन्यं न निवारयति योग्यतां ज्ञात्वा । एवं द्वयोरपि चरणं परिशुद्धमन्यथा नैव ।। २२ ।।
गीतार्थ और गीतार्थ की आज्ञा में रहने वाले अन्य साधुओं की प्रवृत्ति सूत्र के विरुद्ध नहीं होती है, क्योंकि गीतार्थ (चारित्रवान्) कभी आप्तवचन का उल्लंघन नहीं करता है ॥ २१ ।।
चारित्रवान किन्तु सूत्रविरुद्ध प्रवृत्ति करने वाले को योग्य जानकर उसे ऐसा करने से रोकता है। इस प्रकार उन दोनों का चारित्र परिशुद्ध होता है, अन्यथा (अर्थात् अगीतार्थ होकर आज्ञा का उल्लंघन करने से और गीतार्थ के न होने से
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