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आज्ञापरतन्त्रः सः सा पुनः एकान्तहिता वैद्यकज्ञातेन
पञ्चाशकप्रकरणम्
सर्वज्ञवचनतश्चैव |
सर्वजीवानाम् ।। १६ ।।
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( वह (द्रव्य - हिंसादि में प्रवृत्त) साधु आज्ञा के अधीन है और वह आज्ञा सर्वज्ञ की होने से वैद्य के उदाहरण से सभी जीवों का अन्ततोगत्वा हित करने वाली है, अर्थात् जिस प्रकार वैद्यक शास्त्र किसी का हित नहीं करता है, किन्तु कोई यदि उसका पालन करता है तो उसके लिए वह हितकारी सिद्ध होता है, उसी प्रकार सर्वज्ञ की आज्ञा भी किसी का हित नहीं करती, किन्तु उसके अनुसार प्रवृत्ति करने वाले का नियमतः हित ही होता है ।। १६ ।। ले
भावं विणावि एवं होति पवत्ती ण बाहते सव्वत्थ अणभिसंगा विरतीभावं भावं विनाऽपि एवं भवति प्रवृत्तिः न बाधते एषा । सर्वत्र अनभिष्वंगा विरतिभावं साधोः || १७ ||
एसा । सुसाहुस्स ।। १७ ।।
अविरति रूप अध्यवसाय के बिना भी आज्ञापारतन्त्र्य से द्रव्यहिंसादि में प्रवृत्ति होती है। यह प्रवृत्ति द्रव्य, क्षेत्र आदि में प्रतिबन्धरहित होती है, इसलिए सुसाधु की सर्वसावद्य से निवृत्तिरूप विरति के अध्यवसाय को बाधित नहीं करती है ।। १७ ।।
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NO JA प्रव आज्ञाविरुद्ध प्रवृत्ति विरति भाव को खंडित करती है उस्सुत्ता पुण बाहति समतिवियप्पसुद्धावि णियमेणं । गीतणिसिद्ध - पवज्जणरूवा णवरं निबंधा ।। १८ । इयरा उ अभिणिवेसा इयरा ण य मूलछिज्जविरहेण । होएसा एत्तो च्चिय पुव्वायरिया इमं चाहू ।। १९ ।। उत्सूत्रा पुनर्बाधते स्वमतिविप्रशुद्धाऽपि
नियमेन ।
गीतनिषिद्ध - प्रतिपादनरूपा केवलं
निरनुबन्धा || १८ ||
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मूलच्छेद्यविरहेण ।
इतरा तु अभिनिवेषाद् इतरा न च भवत्येषा अत एव पूर्वाचार्या इदं चाहुः ।। १९ ।।
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किन्तु आज्ञा- विरुद्धप्रवृत्ति अपनी मति से विशुद्ध होते हुए भी विरतिभाव को अवश्य बाधित करती है। सूत्र से विरुद्ध प्रवृत्ति प्रज्ञापनीय और अप्रज्ञापनीय दो प्रकार की होती है। सूत्रविरुद्ध प्रवृत्ति करने वाला यदि गीतार्थ साधु के समझाने पर सूत्रविरुद्ध प्रवृत्ति करना बन्द कर दे तो वह प्रवृत्ति प्रज्ञापनीय है, यदि बन्द न करे तो अप्रज्ञापनीय। इसमें प्रज्ञापनीय सूत्रविरुद्ध प्रवृत्ति निरनुबन्ध अर्थात् रोकी जा
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