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चतुर्दश ]
शीलाङ्गविधानविधि पञ्चाशक
शीलाङ्ग मिलकर सर्वविरति का शीलाङ्ग बनते हैं ।। ११ ।।
जिस प्रकार आत्मा परिपूर्ण प्रदेश वाला है, उसी प्रकार शील ( चारित्र) भी परिपूर्ण अंग वाला हो तो ही सर्वविरति होती है। शील सर्वविरति रूप अठारह हजार शीलांग वाला है। इनमें से एक भी कम हो तो सर्वविरति नहीं होती ।। १२ ।। शील की अखण्डता अन्तःकरण के परिणामों की अपेक्षा से है
दट्ठव्वं ।
एयं च एत्थ एवं विरतीभावं पडुच्च न उ बज्झंपि पवित्तिं जं सा भावं विणावि भवे ॥ १३ ॥ जह उस्सग्गम्मि ठिओ खित्तो उदयम्मि केणति तवस्सी । तव्वहपवत्तकाओ अचलियभावोऽपवत्तो एवं चिय मज्झत्थो आणाओ कत्थई सेहगलाणादट्ठा अपवत्तो चेव एतच्चात्रैवं विरतिभावं प्रतीत्य न तु बाह्यमपि प्रवृत्तिं यत्सा भावं विनाऽपि यथा उत्सर्गे स्थितः क्षिप्त तद्वधप्रवृत्तकायोऽचलित
उदके
एवमेव मध्यस्थ आज्ञात: कुत्रचित् अप्रवृत्तश्चैव
शैक्षग्लानाद्यर्थं
ज्ञातव्य: ।। १५ ।।
प्रस्तुत प्रकरण में अखण्ड शील को विरति के परिणाम (विरक्ति के भाव) के आधार पर जानना चाहिए, न कि बाह्य प्रवृत्ति ( वाचिक, कायिक) के आधार पर। क्योंकि बाह्य प्रवृत्ति भाव के बिना भी होती है ।। १३ ॥
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तु ।। १४ ।। पयट्टंतो । णाव्वो ।। १५ ।।
द्रष्टव्यम् ।
भवेत् ।। १३ ।। केनचित्तपस्वी ।
भावोऽप्रवृत्तस्तु ॥ १४ ॥ प्रवर्तमानः ।
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जिस प्रकार किसी ने सामायिक में स्थित तपस्वी को पानी में डाल हो दिया। अब साधु की काया अप्कायिक जीवों की हिंसा में प्रवृत्त होने के बाद भी समभाव का परिणाम, चलित नहीं होने के कारण वह साधु परमार्थ से अप्कायिक जीवों की हिंसा में प्रवृत्त नहीं है ।। १४ । ना समझना चाहिত
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इसी प्रकार समभाव में स्थित साधु द्वारा आप्तवचन के अनुसार शैक्ष, ग्लान, आचार्य आदि की सेवा करते हुए क्वचिद् द्रव्य - हिंसा में प्रवृत्त होने के बाद भी उसका समभाव अविच्छिन्न होने से परमार्थ से वह अप्रवृत्त ही है ।। १५ ।। रहता है तो उस
उपर्युक्त कथन का समाधान
आणापरतंतो सो सा पुण सव्वण्णुवयणओ चेव । वेज्जगणातेणं
एगंतहिया
सव्वजीवाणं ॥ १६ ॥
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