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पञ्चाशकप्रकरणम्
[ चतुर्दश
प्रकार हैं योग में (दो आदि के संयोग से) ७, करण में ७, संज्ञा में १५, इन्द्रियों में ३१, पृथ्वीकायादि में १०२३, श्रमणधर्म में १०२३ भेद होतें हैं। इन सब भेदों को परस्पर गुणा करने पर इनकी संख्या २३, ८४, ५१, ६३, २६५ होती है, फिर यहाँ अठारह हजार भेद ही क्यों कहे गये हैं ?
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उत्तर : श्रावकधर्म की तरह किसी अन्य भेद से सर्वविरति का स्वीकार होता हो तो ये भेद कहने चाहिए, किन्तु ऐसा है नहीं ।
विशेष : शीलाङ्ग के किसी एक भी भाग की सत्ता दूसरे सब की सत्ता हो तो ही सम्भव होती है। अठारह हजार में से कोई एक भी भाग न हो तो सर्वविरति ही नहीं होती है। यही तथ्य अगली गाथा में बतलाते हैं
एत्थ इमं विण्णेयं अइदंपज्जं तु एक्कंपि सुपरिसुद्धं सीलंगं अत्रेदं विज्ञेयमैदम्पर्यं तु एकमपि सुपरिशुद्धं शीलाङ्ग
बुद्धिमानों को इस शीलाङ्ग में निम्नलिखित तथ्य जानने चाहिए। कोई भी एक शीलाङ्ग तभी सुपरिशुद्ध होता है, जब शेष सभी शीलाङ्ग हों। इस प्रकार ये शीलाङ्ग समुदित ही होते हैं। इसलिए यहाँ दो आदि के संयोग से होने वाले भेद नहीं कहे गये हैं। केवल सर्वपदों के अन्तिम भेद के आधार पर अठारह हजार भेद कहे गये हैं ॥ १० ॥
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बुद्धिमंतेहिं ।
सेससभावे ।। १० ।। बुद्धिमद्भिः ।
शेषसद्भावे ।। १० ॥
उपर्युक्त विषय का समर्थन
एक्को वाऽऽयपएसोऽसंखेयपएससंगओ जह तु ।
एतंपि तहा णेयं सतत्तचाओ इहरहा उ ।। ११ ।। जम्हा समग्गमेयंपि सव्वसावज्जचागविरई उ ।
तत्तेणेगसरूवं
ण खंडरूवत्तणमुवेइ ॥ १२ ॥
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एको वाऽऽत्मप्रदेशोऽसंख्येयप्रदेशसङ्गतो यथा तु । एतदपि तथा ज्ञेयं
यस्मात् समग्रमेतदपि तत्त्वेनैकस्वरूपं
सर्वसावद्यत्यागविरतिस्तु । खण्डरूपत्वमुपैति ।। १२ ॥
न
जिस प्रकार आत्मा का एक प्रदेश भी असंख्य प्रदेश वाला होता है, उसी प्रकार एक शीलाङ्ग भी अन्य अनेक शीलाङ्गों से युक्त होता है। यदि स्वतन्त्र एक शीलाङ्ग हो तो वह शीलाङ्ग सर्वविरति रूप नहीं कहा जायेगा, क्योंकि सभी
स्वतत्त्वत्याग इतरथा तु ॥। ११ ॥
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