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________________ १४ शीलाङ्गविधानविधि पञ्चाशक पिछले तेरहवें पञ्चाशक में पिण्डविशुद्धि की विधि बतायी गयी है। पिण्डविशुद्धि एवं शीलाङ्ग चारित्र का ही अंग है, इसलिए अब शीलाङ्ग (शील के भेदों) का विवेचन करने हेतु सर्वप्रथम मङ्गलाचरण करते हैं - मङ्गलाचरण नमिऊण वद्धमाणं सीलंगाइं समासओ वोच्छं । समणाण सुविहियाणं गुरूवएसाणुसारेणं ।। १ ।। नत्वा वर्द्धमानं शीलाङ्गानि समासतो वक्ष्ये । श्रमणानां सुविहितानां गुरूपदेशानुसारेण ।। १ ।। भगवान् महावीर को नमस्कार करके गुरु के उपदेशानुसार शुभानुष्ठान करने वाले श्रमणों के शील के भेदों को संक्षेप में कहूँगा ।। १ ।। शीलांगों का संख्यापरिमाण सीलंगाण सहस्सा अट्ठारस एत्थ होति णियमेणं । भावेणं समणाणं अखंडचारित्तजुत्ताणं ।। २ ।। शीलाङ्गानां सहस्राणि अष्टादशात्र भवन्ति नियमेन । भावेन श्रमणानामखण्डचारित्रयुक्तानाम् ॥ २ ॥ अखण्ड भाव-चारित्र वाले श्रमणों के अठारह हजार शीलाङ्ग अवश्य होते हैं। यहाँ अखण्ड भाव-चारित्र वाले ऐसा श्रमणों (साधुओं) का विशेषण देने का अभिप्राय यह है कि द्रव्यसाधुओं में ये शीलाङ्ग नहीं होते हैं ।। २ ।। शील के अट्ठारह हजार भेद जोए करणे सण्णा इंदियभूमादिसमणधम्मे य । सीलंगसहस्साणं अट्ठारसगस्स णिप्फत्ती ।। ३ ।। योगे करणे संज्ञेन्द्रियभूम्यादि श्रमणधर्मे च । शीलांगसहस्राणामष्टादशकस्य निष्पत्ति: ।। ३ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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