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पञ्चाशकप्रकरणम्
[ त्रयोदश
द्वात्रिंशत् कवलमानं रागद्वेषाभ्यां धूमाङ्गारम् । वैयावृत्यादयः कारणमविधौ अतिचारः ।। ४९ ।।
पुरुषों के लिए बत्तीस कवल (ग्रास) और स्त्री के लिए अट्ठाइस कवल (ग्रास) भोजन की मात्रा (प्रमाण) आगमों में कही गयी है । अत: उससे अधिक ग्रहण करना प्रमाण दोष है।
राग-द्वेष के द्वारा चारित्र को अंगारे अर्थात् कोयले के समान बनाना बेगारदोष है और चारित्र को धूमयुक्त अर्थात् किञ्चित् मलिन बनाना धूमदोष है।
वैयावृत्य (सेवा), ईर्यासमिति का पालन, संयम का पालन, प्रतिलेखनादि क्रिया, अपने प्राणों की रक्षा, सूत्रार्थ का अध्ययन और चिन्तन - इन कारणों से साधु को आहार लेना होता है।
प्रमाण से अधिक और अकारण भोजन रूप अविधि से अतिचार (दोष) लगता है ।। ४९ ।।
प्रस्तुत प्रकरण का उपसंहार एयं णाऊणं जो सव्वं चिय सुत्तमाणतो कुणति । काउं संजमकायं सो भवविरहं लहुं लहति ।। ५० ।। एतज्ज्ञात्वा यः सर्वमेव सूत्रमानतः करोति । कृत्वा संयमकायं सो भवविरहं लघु लभते ।। ५० ।।
जो साधु इस पिण्डविधान को जानकर और आप्तवचन को प्रमाण मानकर सम्पूर्ण पिण्ड दोषों को दूर करता है, वह अपनी संयम-यात्रा से जल्दी ही संसार से मुक्ति प्राप्त करता है।
विशेष : यहाँ मोक्षार्थी के लिए सर्वज्ञवचन ही शरण है - यह अभीष्ट है ।। ५० ॥
॥ इति पिण्डविधानविधिर्नाम त्रयोदशं पञ्चाशकम् ॥
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