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________________ २३८ पञ्चाशकप्रकरणम् [ त्रयोदश अशुद्ध आहार ग्रहण करे तो उसका कर्म के कारण निर्दोष नहीं माना जायेगा, क्योंकि आहार की निर्दोषता में आप्तवचन का योग निमित्त-कारण ही होता है। भोग में प्रवर्तमान व्यक्ति का कर्म विचित्र होता है। यह पुण्यानुबन्धी और पापानुबन्धी के भेद से दो प्रकार का होता है। इनमें से पुण्यानुबन्धी कर्म से भोग में प्रवृत्ति की जाये या करे तो भी परिणाम-विशेष घटित होने से दोष नहीं लगता है ।। ४४ ॥ आहार निर्दोषता में कर्मबल कारण बनने पर आपत्ति इहरा ण हिंसगस्सऽवि दोसो पिसियादिभोत्तु कम्माओ । जं तस्सिद्धिपसंगो एयं लोगागमविरुद्धं ॥ ४५ ॥ इतरथा न हिंसकस्यापि दोषः पिशितादिभोक्तुं कर्मतः । यत्तत् सिद्धिप्रसंग एतल्लोकागमविरुद्धम् ।। ४५ ॥ बिना किसी योग के केवल कर्म से अशुद्ध आहार होता है, इसलिए निदोष है - ऐसा मानने पर मांसाहार करने वाले हिंसकों को कर्मबन्ध रूप दोष नहीं लगेगा, क्योंकि यह सिद्ध होता है कि ज्ञानावरणीयादि कर्मों के प्रभाव से हिंसा होती है इसलिए दोष युक्त नहीं है। किन्तु यह लोक और आगम के विरुद्ध है। अर्थात् हिंसा और मांसाहार - लोक और सिद्धान्त इन दोनों से बाधित हैं ॥ ४५ ॥ निर्दोष भिक्षा की प्राप्ति सम्बन्धी प्रकरण का उपसंहार ता तहसंकप्पो च्चिय एत्थं दुट्ठोत्ति इच्छियव्वमिणं । तदभावपरिण्णाणं उवओगादीहिँ उ जतीण ॥ ४६ ॥ तस्मात् तथासंकल्प एवात्र दुष्ट इति एष्टव्यमिदम् । तदभावपरिज्ञानमुपयोगादिभिस्तु यतीनाम् ।। ४६ ।। भोजन पकाने के कार्य का आरभ्म तो अपने लिए ही होता है, इसलिए . भोजन के समय इतना साधु के लिए और इतना अपने लिए है, ऐसा संकल्प दूषित होता है ऐसा मानना चाहिए तथा पुन: कुछ आहार में ऐसा संकल्प नहीं है, इसे ज्ञानोपयोग, निमित्त, शुद्धि और प्रश्न आदि से जाना जा सकता है ।। ४६ ।। उद्गमादि दोष किससे होते हैं ? गिहिसाहूभयपहवा उग्गमउप्पायणेसणादोसा । एए तु मंडलीए णेया संजोयणाईया ।। ४७ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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