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त्रयोदश]
पिण्डविधानविधि पञ्चाशक
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३४वी गाथा की स्पष्टता सिट्ठावि य केइ इहं विसेसओ धम्मसत्थकुसलमती । इय न कुणंतिवि अणडणमेवं भिक्खाएँ वतिमेत्तं ।। ४२ ।। शिष्टा अपि च केचिदिह विशेषतो धर्मशास्त्र कुशलमतयः । इति न कुर्वन्ति अपि अनटनमेवं भिक्षायै वाङ्मात्रम् ।। ४२ ।।
कितने विशिष्ट लोग तो पुण्य के लिए भी आहार नहीं बनाते हैं। विशेषकर धर्मशास्त्र में कुशल बुद्धि वाले तो और भी नहीं बनाते हैं। इसलिए 'भिक्षा के लिए घूम नहीं सकते हैं - ऐसा कहना अर्थशून्य है, क्योंकि निर्दोष भिक्षा ऐसे लोगों के यहाँ से प्राप्त की जा सकती है ।। ४२ ।।
निर्दोष भिक्षा लेना दुष्कर है - ऐसी परमान्यता का समाधान दुक्करयं अह एयं, जइधम्मो दुक्करो चिय पसिद्धं । किं पुण ? एस पयत्तो, मोक्खफलत्तेण एयस्स ।। ४३ ।। दुष्करकमथ एतद्यतिधर्मो दुष्कर एव प्रसिद्धम् । किं पुन? एषः प्रयत्नो मोक्षफलत्वेन एतस्य ।। ४३ ॥
यदि आप यह मानते हैं कि असंकल्पितादि भिक्षा प्राप्त करना दुष्कर है तो यह मान्यता सत्य है, क्योंकि साधु के लिए असंकल्पित आहार ही नहीं, उसके तो सभी आचार दुष्कर हैं - यह बात प्रचलित है। जिस साधु के सभी आचार दुष्कर हैं उसका निर्दोष भिक्षा प्राप्त करना दुष्कर हो तो कौन सी नयी बात है ?
प्रश्न : निर्दोष भिक्षा इतनी दुष्कर है तो साधु इसके लिए इतना प्रयत्न क्यों करते हैं ?
उत्तर : साध्वाचार का फल मोक्ष है। यह मोक्ष कठिन प्रयत्न किये बिना नहीं मिलता है, इसलिए साधु इसके लिए प्रयत्न करते हैं ।। ४३ ।।
कर्मवादियों के मत का समाधान भोगंमि कम्मवावारदारतोऽवित्थ दोसपडिसेहो । णेओ आणाजोएण कम्मुणो चित्तयाए य ॥ ४४ ।। भोगे कर्मव्यापारद्वारतोऽप्यत्र दोषप्रतिषेधः । ज्ञेय आज्ञायोगेन कर्मणः चित्रतया च ॥ ४४ ।।
आप्तवचन के अनुसार प्रवृत्ति करते हुए भी ज्ञानावरणीयादि कर्मों के प्रभाव के कारण यदि अशुद्ध भोजन का ग्रहण हो जाये तो भी वह निर्दोष ही माना जाता है। किन्तु आप्तवचन के अनुसार आचरण नहीं करने वाला साधु यदि
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