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पञ्चाशकप्रकरणम्
[त्रयोदश
गाथा में किया गया है। अब ३५वीं गाथा में उठाये गये प्रश्न - विशिष्ट गृहस्थ पुण्य के लिए आहार बनाते हैं - इसका समाधान किया जा रहा है -
एवंविहेसु पायं धम्मट्ठा णेव होइ आरंभो । गिहिसु परिणाममेत्तं संतंपि य णेव दुटुंति ।। ३९ ।। एवंविधेषु प्राय: धर्मार्थं नैव भवति आरम्भः । गृहिषु परिणाममात्रं सदपि च नैव दुष्टमिति ।। ३९ ।।
जिनके घरों में प्रतिदिन एक ही परिमाण में रसोई बनती है --- ऐसे गृहस्थों के घरों में श्रमणों को आहार देकर पुण्य कमाने का ध्येय ही नहीं होता है, अपितु ऐसे लोग साधु को जो आहार दिया जाये वही हमारा है – ऐसे भाववाले होते हैं। वे साधु के लिए अधिक आहार बनाने के भाव से रहित होते हैं और इसीलिए आहार दूषित नहीं बनता है ।। ३९ ।।
दान के भावमात्र से पिण्ड दूषित नहीं बनता इसकी सिद्धि तहकिरियाऽभावाओ सद्धामेत्ताउ कुसलजोगाओ । असुहकिरियादिरहियं तं हंदुचितं तदण्णं व ।। ४० ।। तथाक्रियाऽभावात् श्रद्धामात्रं कुशलयोगात् । अशुभक्रियादिरहितं तं हंदि उचितं तदन्यादिव ।। ४० ।।
इस प्रकार केवल दान सम्बन्धी भाव के कारण श्रमण के लिए आरम्भ रूप क्रिया से रहित तथा केवल श्रद्धा वाला एवं दान के प्रशस्त मानसिक व्यापार से निर्मित पिण्ड दूषित नहीं होता है। जिस प्रकार दान के समय साधुवन्दन करने से पिण्ड दूषित नहीं बनता है, उसी प्रकार केवल दान सम्बन्धी भाव होने से भी पिण्ड दूषित नहीं होता है ।। ४० ।।
__ उपर्युक्त विषय का समर्थन न खलु परिणाममेत्तं पदाणकाले असक्कियारहियं । गिहिणो तणयं तु जइं दूसइ आणाएँ पडिबद्धं ।। ४१ ॥ न खलु परिणाममात्र प्रदानकाले असत्क्रियारहितम् । गृहिणः सत्कं तु यतिं दूषयति आज्ञायां प्रतिबद्धम् ॥ ४१ ।।
साधु को दान देते समय गृहस्थ का जीवहिंसारूप अप्रशस्त व्यापार से रहित केवल दान-भाव साधु को दृषित नहीं करता है, किन्तु साधु के निमित्त से तैयार किया गया पिण्ड तो गृहस्थ के द्वारा दानभावपूर्वक देने पर भी आज्ञा में रहने वाले साधु को भी जब दूषित करता ही है, तो ऐसा पिण्ड आज्ञा में न रहने वाले को तो दूषित करेगा ही ।। ४१ ।।
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