________________
+
पिण्डविधानविधि पञ्चाशक
तु ।। ३१ ।।
प्रायः ।
एतत्तु ॥ ३१ ॥
उपर्युक्त विषय का आगम से समर्थन संपत्ते इच्चाइसु सुत्तेसु णिदंसियं इमं पायं । जति य एस पिंडो ण य अन्नह हंदि एयं सम्पत्त इत्यादिषु सूत्रेषु निदर्शितमिदं यतेश्च एषः पिण्डो न च अन्यथा हंदि सभ्यक् प्रत्युपेक्षण, प्रमार्जन और सूत्रार्थ पौरुषी करने के बाद भिक्षा का समय होने पर स्थिर होकर अनासक्त भाव से विधिपूर्वक आहार की गवेषणा करनी चाहिए तथा साधु को पृथ्वी पर युगप्रमाण ( साढ़े तीन हाथ ) आगे दृष्टि डालकर चलना चाहिए और बीज, हरितकाय, प्राणी, जल और मिट्टी को छोड़ते हुए चलना चाहिये अर्थात् वनस्पति आदि पर नहीं चलना चाहिए।
उपर्युक्त क्रियाओं में लीन रहने वाले साधु का शुद्धपिण्ड होता है। साधु को विशुद्ध पिण्ड ही लेना चाहिए। अशुद्ध पिण्ड लेने से साधुपना नहीं रहता है ।। ३१ ।।
त्रयोदश ]
विशुद्ध पिण्ड को जानने के उपाय
दोसपरिणापि हु एत्थं उवओगसुद्धिमाईहिं ।
।
जायति तिविहणिमित्तं तत्थ तिहा वण्णियं
उपयोगशुद्ध्यादिभिः |
दोषपरिज्ञानमपि खल्वत्र जायते त्रिविधनिमित्तं तत्र त्रिधा वर्णितं येन ॥ ३२ ॥ जिस विषय का प्रत्यक्ष ज्ञान न हो उसका ज्ञान करने के लिए अतीतअनागत - वर्तमान काल सम्बन्धी कायिक, वाचिक एवं मानसिक विचारणा करनी चाहिए। विचारणा इत्यादि से परोक्ष ज्ञान होता है। इसी प्रकार प्रस्तुत प्रकरण में भी उपयोग- शुद्धि, दर्शन, प्रश्न आदि से आहार के दोषों का ज्ञान हो सकता है ।। ३२ ।।
भिक्षा शब्द का अर्थ यति की भिक्षा में ही घटित होता है भिक्खासद्दोऽवेवं अणियतलाभविसउत्ति एमादी । सव्वं चिय उववन्नं किरियावंतंमि उ
जतिम्मि ॥ ३३ ॥
जेण ॥ ३२ ॥
१. संपते भिक्खकालंमि, असंभंतो अमुच्छिओ । इमेण कमजोगेण, भत्तपाणं गवे ॥ १ ॥ पुरओ जुगमायाए, पेहमाणो महिं चरे ।
वज्जंतो बीयहरियाई, पाणे अ दगमट्टिअं ॥ २ ।।
Jain Education International
-
२३३
For Private & Personal Use Only
दशवै०, अ०५, उ०१, गा० १, ३
www.jainelibrary.org