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पिण्डविधानविधि पञ्चाशक
मालापहृत और आच्छेद्य दोष का स्वरूप
मालोहडं तु भणियं जं मालादीहि देति घेत्तूणं । अच्छेज्जं चच्छिदिय' जं सामी भिच्चमादीणं ॥ १४ ॥ मालापहृतं तु भणितं यन्मालादिभ्यो ददाति गृहीत्वा । आच्छेद्यं चाच्छिद्य यत्स्वामी भृत्यादीनाम् ॥ १४ ॥
साधु को देने के लिए ऊपरी मंजिल या भूमिगत कमरे से आहारादि निकाल कर दे तो यह मालापहृत दोष कहलाता है।
त्रयोदश ]
मालिक, नौकर, बालक आदि की किसी भी वस्तु को जबरदस्ती लेकर साधु को दे तो आच्छेद्य दोष होता है। इसके गृहस्वामी, नृप और चोर ये तीन भेद हैं ।। १४ ।।
पक्खेवो ॥। १५ ।।
अनिसृष्ट और अध्यवपूरक दोष का स्वरूप अणिसिद्धं सामण्णं गोट्ठिगभत्तादि ददउ एगस्स । सट्टा मूलद्दहणे अज्झोयर होइ अनिसृष्टं सामान्यं गोष्ठिकभक्तादि ददत स्वार्थं मूलद्रहणे अध्यवपूरको भवति अनेक लोगों के सामूहिक अधिकार वाले भोजनादि को सबकी अनुमति के बिना कोई एक दे दे तो अनिसृष्ट दोष लगता है।
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एकस्य ।
प्रक्षेपः ॥ १५ ॥
अपने लिए खाना आदि पकाने की शुरूआत करने के बाद उस भोजन सामग्री में साधु को देने के लिए और सामग्री मिला लेना अध्यवपूरक दोष है ।। १५ ।।
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विशुद्धि - अविशुद्धिकोटिरूप दो भेद कम्मुद्देसियचरमतिय पूइयं मीस चरमपाहुडिया | अज्झोयर अविसोही विसोहिकोडी भवे सेसा ॥ १६ ॥ कर्मेद्देशिकचरमत्रिकं पूतिकं मिश्रं चरमप्राभृतिका । अध्यवपूरको अविशोधिः विशोधिकोटी भवेत् शेषा ।। १६ ।।
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कर्म
धाकर्म, औद्देशिक विभाग के समुद्देशकर्म, आदेशकर्म और समादेशये तीन भेद, मिश्रजात और अध्यवपूरक के पाखण्डी और यति ये दो भेद, बादरभक्तपानपूति और बादर प्राभृतिक इन मूल छः भेदों के कुल दस भेद अविशुद्धि कोटि के हैं, शेष सभी विशुद्धि कोटि के हैं।
१. 'चाछिंदिय' इति पाठान्तरम् ।
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