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________________ पञ्चाशकप्रकरणम् [ त्रयोदश उनको दान देने का लाभ नहीं मिल पायेगा, इसलिए उन कार्यक्रमों को पूर्वनिर्धारित समय से पहले करना ॥ १० ॥ २२६ प्रादुष्करण और क्रीत दोष का स्वरूप णीयदुवारंधयारे गवक्खकरणाइ पाउकरणं दव्वाइएहिं किणणं साहूणट्ठाऍ कीयं नीचद्वारान्धकारे गवाक्षकरणादि प्रादुष्करणं द्रव्यादिभिः क्रयणं साधूनामर्थाय क्रीतं तु ॥ ११ ॥ घर का दरवाजा नीचा होने के कारण घर में अँधेरा हो तो साधु के आने पर प्रकाश के लिए खिड़कियों को खोलना और दीप जलाना आदि प्रादुष्करण दोष हैं, क्योंकि ऐसा करने से जीव हिंसा होती है। साधु के लिए पैसे से खरीदकर भिक्षा देना क्रीत दोष है। यह चार प्रकार का होता है स्वद्रव्य, परद्रव्य, स्वभाव और परभाव ।। ११ ।। तु । तु ।। ११ ।। तु । अपमित्य और परावर्तित दोष का स्वरूप भणियं १२ ॥ पामिच्चं जं साहूणऽट्ठा उच्छिंदिउं दियावेइ | पल्लट्टिउं च गोरवमाई परियट्टियं अपमित्यं यत् साधूनामर्थात् उच्छिद्य परिवर्त्य च गौरवादि परिवर्तितं भणितम् ॥ १२ ॥ ददाति । साधु को दूसरे से उधार लेकर देना अपमित्य दोष है। साधुओं का गौरव हो और अपनी लघुता न हो, इसके लिए अपने कोदों आदि हल्की वस्तु दूसरे को देकर उससे उत्तम चावल लेकर भात बनाना और साधु को देना परावर्तित दोष है ।। १२ ।। अभिहृत और उद्भित्रदोष का स्वरूप सग्गामपरग्गामा जमाणिउं आहडं तु तं होइ । छगणाइणोवलित्तं उब्भिंदिय जं तमुब्भिण्णं ॥ १३ ॥ स्वग्रामपरग्रामाद्यदानीय आहृतं तु तद्भवति । छगणादिनोपलिप्तमुद्भिद्य यत्तदुद्भिन्नम् ॥ १३ ॥ स्वग्राम अर्थात् साधु जिस ग्राम में रहते हों उसके अतिरिक्त दूसरे ग्राम आदि से आहार लाकर साधु को देना अभिहृत दोष है। गोबर आदि से लीपकर बन्द किये गये डेहरी (कुठिया) आदि के लेप को खोलकर या जो आलमारी प्रतिदिन नहीं खुलती है, उसे खोलकर साधु को आहारादि देना उद्भिन्न दोष है ॥ १३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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