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त्रयोदश]
पिण्डविधानविधि पञ्चाशक
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बनता है। आधाकर्मिक आहार-पानी से मिश्रित शुद्ध आहार-पानी पूति-दोषवाला बन जाता है।
पहले से ही गृहस्थ और साधु दोनों के लिए एक साथ भोजन बनाया हो तो वह गृहिसंयतमिश्र नामक मिश्रजात दोष है। आदि शब्द से मिश्रजात के भी गृहियावदर्थिक और गृहिपाखण्डिमिश्र - ये दो दोष जानने चाहिए। गृहस्थ और याचक के लिये पहले से बनाया गया भोजन गृहियावदर्थिक तथा गृहस्थ और पाखण्डी अर्थात् अन्य परम्परा के श्रमण के लिए बनाया गया भोजन गृहिपाखण्डिमिश्र है ॥ ९ ॥
स्थापना और प्राभृतिका दोष का स्वरूप साहोहासियखीराइठावणं ठवण साहुणऽट्ठाए । सुहुमेयरमुस्सक्कणमवसक्कणमो य पाहुडिया ।। १० ।। साधुभाषितक्षीरादिस्थापनं स्थापना साधूनामर्थाय । सूक्ष्मेतरमुत्ष्वष्कणमवष्वष्कणं च प्राभृतिका ।। १० ।।
साधु द्वारा माँगे जाने की स्थिति को ध्यान में रखकर उनको देने के लिए दूध, दही आदि रखना स्थापना दोष कहलाता है।
प्राभृतिका दोष के उत्ष्वष्कण और अवष्वष्कण ये दो भेद हैं। इन दोनों के सूक्ष्म और बादर के भेद से दो-दो भेद हैं। इस प्रकार प्राभृतिका के सूक्ष्म उत्ष्वष्कण, सूक्ष्म अवष्वष्कण, बादर उत्ष्वष्कण तथा बादर अवष्वष्कण - ये चार भेद होते हैं।
१. सूक्ष्म उत्प्वष्कण - (थोड़ा विलम्ब से) सूत कातते समय माँ से जब उसका बालक खाना माँगे तो भिक्षा के लिए आ रहे साधु को देखकर जब साधु आ जाये उसके पश्चात् बालक को खाना दे तो साधु के कारण बालक को थोड़ी देर से खाना देने से सूक्ष्म उत्ष्वष्कण दोष लगता है।
२. सूक्ष्म अवष्वष्कण -- (थोड़ा पहले) सूत कातती हुई स्त्री साधु के आने पर उनको भिक्षा देने के साथ-साथ बालक को भी खाना दे दे, ताकि फिर उसके लिए अलग से न उठना पड़े तो थोड़ा पहले खाना देने से सूक्ष्म अवष्वष्कण दोष लगता है।
३. बादर उत्वष्कण - (दीर्घ विलम्ब) आने वाले साधुओं को दान देने का लाभ लेने के लिए भोज आदि समारोहों का कार्यक्रम पूर्व निर्धारित समय से न करके विलम्ब से करना।
___४. बादर अवष्वष्कण - (बहुत पहले) साधु विहार कर जायेंगे तो
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