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त्रयोदश]
पिण्डविधानविधि पञ्चाशक
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३. पूतिकर्म - शुद्ध आहार में अशुद्ध आहार मिला कर पूरे आहार को अशुद्ध बनाना पूतिकर्म है।
४. मिश्रजात - गृहस्थ और साधु दोनों के मिश्रित उद्देश्य से बनाया गया भोजन मिश्रजात है।
५. स्थापना - साधु को देने के लिए अमुक समय तक आहार रखे रहना स्थापना दोष है।
६. प्राभृतिका – साधुओं के आगमन के कारण निश्चित किये गये समय से पहले भोज आदि का आयोजन करके साधु को भिक्षा देना प्राभृतिका है।
७. प्रादुष्करण - साधु को भिक्षा देने के लिए भोजन को खुला करना (उघाड़ना) प्रादुष्करण दोष है।
८. क्रीत - साधु के लिए खरीद कर भोजन देना। ९. अपमित्य - उधार लेकर साधु को भिक्षा देना। १०. परावर्तित - वस्तुओं की अदला-बदली करके साधु को भिक्षा
देना।
११. अभिहत - साधु को देने के लिए अपने स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया गया भोजन अभिहृत दोष वाला है।
१२. उद्भिन - साधु के लिए बखार, कोठी, अलमारी आदि खोलना उद्भिन दोष है।
१३. मालापहृत - साधु को देने के लिए ऊपरी मंजिल से वस्तु नीचे लाना मालापहृत है।
१४. आच्छेद्य - साधु को देने के लिए पुत्रादि के पास से वस्तु वापिस ले लेना।
१५. अनिसृष्ट - अनेक लोगों के अधिकार वाली वस्तु को उनकी आज्ञा के बिना देना अनिसृष्ट दोष है।
१६. अध्यवपूरक- अपने लिए बन रही रसोई में साधु के निमित्त से और अधिक मिला लेना अध्यवपूरक दोष है ।। ५-६ ।।
आधाकर्म दोष का स्वरूप सच्चित्तं जमचित्तं साहूणऽट्ठाएँ कीरए जं च । अच्चित्तमेव पच्चति आहाकम्मं तयं भणियं ।। ७ ।। सचित्तं यदचित्तं साधूनामर्थाय क्रियते यच्च । अचित्तमेव पच्यते आधाकर्म तकं भणितम् ॥ ७ ॥
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