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पञ्चाशकप्रकरणम्
सामाचारी का फल
एयं सामायारी जुंजंता चरणकरणमाउत्ता । साहू खवेंति कम्मं अणेगभवसंचियमणंतं ।। ४९ ।।
एतां सामाचारी युञ्जानाः चरणकरणायुक्ताः । साधवः क्षपयन्ति कर्म अनेकभवसञ्चितमनन्तम् ।। ४९ ।।
चरणकरण (मूलगुण और उत्तरगुण) में उपयोगी इस सामाचारी का जीवन में अच्छी तरह पालन करने वाले साधु अनेक भवों के संचित अनन्त कर्मों को नष्ट करते हैं ।। ४९ ।।
सामाचारी के पालन नहीं करने का फल जे पुण एयविउत्ता सग्गहजुत्ता जणंमि विहरति । तेसिं तमणुट्ठाणं णो भवविरहं ये पुनरेतद्वियुक्ताः स्वाग्रहयुक्ता जने तेषां तदनुष्ठानं न भवविरहं
जो साधु इस सामाचारी से रहित हैं और अपने आग्रहों से ग्रस्त होकर ( अशास्त्रीय अनुष्ठान में विश्वास करके) लोक में विहार करते हैं, उनके वे अनुष्ठान संसार - सागर से मुक्त होने में सहायता नहीं करते हैं ।। ५० ।।
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[ द्वादश
॥ इति साधुसामाचारीविधिर्नाम द्वादशं पञ्चाशकम् ॥
पसाइ ।। ५० ।। विहरन्ति ।
प्रसाधयति ।। ५० ।।
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