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________________ २२० पञ्चाशकप्रकरणम् सामाचारी का फल एयं सामायारी जुंजंता चरणकरणमाउत्ता । साहू खवेंति कम्मं अणेगभवसंचियमणंतं ।। ४९ ।। एतां सामाचारी युञ्जानाः चरणकरणायुक्ताः । साधवः क्षपयन्ति कर्म अनेकभवसञ्चितमनन्तम् ।। ४९ ।। चरणकरण (मूलगुण और उत्तरगुण) में उपयोगी इस सामाचारी का जीवन में अच्छी तरह पालन करने वाले साधु अनेक भवों के संचित अनन्त कर्मों को नष्ट करते हैं ।। ४९ ।। सामाचारी के पालन नहीं करने का फल जे पुण एयविउत्ता सग्गहजुत्ता जणंमि विहरति । तेसिं तमणुट्ठाणं णो भवविरहं ये पुनरेतद्वियुक्ताः स्वाग्रहयुक्ता जने तेषां तदनुष्ठानं न भवविरहं जो साधु इस सामाचारी से रहित हैं और अपने आग्रहों से ग्रस्त होकर ( अशास्त्रीय अनुष्ठान में विश्वास करके) लोक में विहार करते हैं, उनके वे अनुष्ठान संसार - सागर से मुक्त होने में सहायता नहीं करते हैं ।। ५० ।। Jain Education International [ द्वादश ॥ इति साधुसामाचारीविधिर्नाम द्वादशं पञ्चाशकम् ॥ पसाइ ।। ५० ।। विहरन्ति । प्रसाधयति ।। ५० ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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