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________________ द्वादश] साधुसामाचारीविधि पञ्चाशक २१७ २. सन्दिष्टोऽसन्दिष्टस्य - गुरु की आज्ञा से गुरु द्वारा निर्दिष्ट आचार्य के अलावा अन्य आचार्य के पास जाना। ३. असन्दिष्टः सन्दिष्टस्य- गुरु द्वारा निर्दिष्ट आचार्य के पास गुरु की आज्ञा के बिना जाना अर्थात् गुरु ने कुछ समय के लिए जाने से मना किया हो फिर भी जाना। . ४. असन्दिष्टोऽसन्दिष्टस्य- गुरु की आज्ञा के बिना गुरु द्वारा निर्दिष्ट आचार्य के अतिरिक्त अन्य आचार्य के पास जाना। इनमें प्रथम विकल्प शुद्ध है, क्योंकि इससे श्रुतज्ञान का विच्छेद नहीं होता है ॥ ४४ ॥ परावर्तनादि पदों का अर्थ अथिरस्स पुव्वगहियस्स वत्तणा जं इहं थिरीकरणं । तस्सेव पएसंतरणट्ठस्सऽणुबंधणा घडणा ॥ ४५ ॥ गहणं तप्पढमतया सुत्तादिसु णाणदंसणे चरणे । वेयावच्चे खमणे सीदणदोसादिणाऽण्णत्थ ।। ४६ ।। अस्थिरस्य पूर्वगृहीतस्य वर्तना यदिह स्थिरीकरणम् । तस्यैव प्रदेशान्तर-नष्टस्यानुबन्धना घटना ॥ ४५ ॥ ग्रहणं तत्प्रथमतया सूत्रादिषु ज्ञानदर्शनयोः चरणे । वैयावृत्ये क्षपणे सीदनदोषादिनाऽन्यत्र ।। ४६ ।। पूर्व अधीत श्रुत के विस्मृत हो जाने पर उसे पुन: याद करना ‘परावर्तना' है। पहले अध्ययन किये हुए ग्रन्थ का कोई भाग यदि विस्मृत हो गया हो या अध्ययन करते समय कोई भाग छूट गया हो तो उसका फिर से अध्ययन करके उस श्रुत के साथ जोड़ देना 'अनुसन्धान' है ।। ४५ ॥ ___जिसका अध्ययन नहीं किया हो ऐसे नये श्रुतज्ञान या दर्शनप्रभावक ग्रन्थों का सूत्र, अर्थ या सूत्रार्थपूर्वक अध्ययन करना ‘ग्रहण' है। चारित्र के वैयावृत्य सम्बन्धी और तप सम्बन्धी - ये दो भेद हैं। अपना गच्छ छोड़कर दूसरे गच्छ में ज्ञानार्जन के लिए जाने की बात ठीक है, किन्तु वैयावृत्य और तप के लिए दूसरे गच्छ में क्यों जाना चाहिए ? इसके निम्र कारण हैं - १. अपने गच्छ के साधुओं में आचार का प्रमादरहित पालन न होता हो। १. सूत्रादिषु - सप्तम्याः षष्ठ्यर्थत्वात्। Jain Education International For Private &Personal.Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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