________________
पञ्चाशकप्रकरणम्
[ द्वादश
ज्ञानादि के लिए गुरु से भिन्न अन्य आचार्य के पास जाकर आत्मसमर्पणपूर्वक उनके पास रहने रूप) उपसम्पदा सामाचारी तीन प्रकार की होती है। ज्ञानसम्बन्धी, दर्शनसम्बन्धी और चारित्रसम्बन्धी । ज्ञानसम्बन्धी और दर्शनसम्बन्धी उपसम्पदा भी पुन: तीन-तीन प्रकार की है और चारित्रसम्बन्धी उपसम्पदा दो प्रकार की है ।। ४२ ।।
२१६
उपसम्पदा के अवान्तर भेद
वत्तण-संधण-गहणे सुत्तत्थोभयगया उ एसत्ति । वेयावच्चे खमणे काले पुण आवकहियादी ।। ४३ ।। वर्तन-सन्धान-ग्रहणे सूत्रार्थोभयगता तु एषेति । वैयावृत्ये क्षपणे काले पुनर्यात्कथिक्यादि ॥ ४३ ॥ ज्ञानसम्बन्धी उपसम्पदा के सूत्रसम्बन्धी, अर्थसम्बन्धी और सूत्रार्थ ये तीन भेद हैं। इन तीन भेदों के परावर्तन, अनुसन्धान और ग्रहण
सम्बन्धी ये तीन उपभेद हैं। इस प्रकार ज्ञान सम्बन्धी उपसम्पदा के कुल (३ x ३ = ९) नौ भेद हैं। दर्शनप्रभावक सम्मतितर्क आदि ग्रन्थों की अपेक्षा से ये ही नौ भेद दर्शन अर्थात् श्रद्धान सम्बन्धी उपसम्पदा के भी हैं।
सूत्र
सूत्र का व्याख्यान । परावर्तन
अर्थसूचक वाक्य | अर्थ भूले हुए सूत्रादि को याद करना । अनुसन्धान किसी ग्रन्थ के अमुक भाग के विस्मृत / नष्ट हुए भाग को याद करके उस स्थल पर जोड़ना । ग्रहण
नये सूत्र का
अध्ययन करना।
चारित्र सम्बन्धी उपसम्पदा के वैयावृत्य और तप ये दो भेद हैं। इन दोनों भेदों के कालपरिमाण की अपेक्षा से यावत्कथिकी और इत्वरकालिका ये दो भेद हैं। वैयावृत्य और तप के लिए अन्य आचार्य के पास आजीवन रहना यावत्कथिकी और थोड़े समय के लिए रहना इत्वरकालिका उपसम्पदा है || ४३ ॥
Jain Education International
-
उपसम्पदा की विधि
संदिट्ठो संदिट्ठस्स चोवसंपज्जई उ एमाई ।
चउभंगो एत्थं पुण पढमो भंगो हवइ सुद्धो ॥ ४४ ॥ सन्दिष्टः सन्दिष्टस्य चोपसम्पद्यते तु एवमादिः । चतुर्भङ्गोऽत्र पुनः प्रथमो भङ्गो भवति शुद्धः ।। ४४ ।। अन्य आचार्य के पास जाने के निम्न चार स्वरूप हैं १. सन्दिष्टः सन्दिष्टस्य के पास जाना।
-
-
―
For Private & Personal Use Only
-
गुरु की आज्ञा से गुरु द्वारा निर्दिष्ट आचार्य
www.jainelibrary.org