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द्वादश]
साधुसामाचारीविधि पञ्चाशक
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- मनुष्यभव, जिनवचन और धर्म में पुरुषार्थ दुर्लभ है, इसलिए इन तीनों को पाकर धर्मकार्य में कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए ॥ ३९ ॥
१. साधुओं के कार्य मणियों के उत्पत्तिस्थान में गये हुए निर्धन के रलग्रहण के समान है। जिस प्रकार रत्न की खान में गये हुए निर्धन की रत्नों को लेने की इच्छा अविच्छिन्न होती है, उसी प्रकार चारित्रसम्पन्न साधु की वैयावृत्य आदि करने की सतत इच्छा होती है।
२. साधुओं के कर्तव्यों का फल भविष्य में मिलता है, जबकि रत्नों का फल तो वर्तमान में मिलता है। किन्तु वर्तमान से भविष्य में अधिक होता है। इसलिए वर्तमानकालिक रत्नों की प्राप्ति से अधिक महत्त्वपूर्ण भविष्यकालिक साधुकर्तव्य हैं। साधुकर्तव्यों के साधन (मनुष्यभव, आर्यक्षेत्र, आर्यजाति आदि) अनित्य हैं - यह स्पष्टतया जानना चाहिए । ४० ।। किसी कारणवश गुरु से पूछे बिना निमन्त्रण कर दिया हो तो क्या करें
इयरेसिं अक्खित्ते गुरुपुच्छाए णिओगकरणंति । एवमिणं परिसुद्धं वेयावच्चे तु अकएऽवि ।। ४१ ।। इतरेषामाक्षिप्ते गुरुपृच्छायाः नियोगकरणमिति ।
एवमिदं परिशुद्धं वैयावृत्ये तु अकृतेऽपि ।। ४१ ।। - गुरु से पूछे बिना गुरु को छोड़कर अन्य साधुओं को निमन्त्रण दे दिया हो तो आहार लाने के पहले गुरु से अवश्य पूछ लेना चाहिए। इससे बाकी के साधुओं को किया गया निमन्त्रण निर्दोष ही बनता है (इसका कारण इसी प्रकरण की सत्ताइसवीं-अट्ठाइसवीं गाथाओं में बतला दिया है)।
प्रश्न : निमन्त्रण के बाद गुरुजी से पूछने पर यदि वे लाने की आज्ञा न दें तो निमन्त्रण निष्फल हो जायेगा - ऐसी स्थिति में आप निर्दोष कैसे रहेंगे?
उत्तर : आहारादि दान रूप वैयावृत्य बाह्य से नहीं करने पर भी भाव से तो किया है, पुनः गुर्वाज्ञा पालन में भी महान् लाभ है। गुरु भी अनावश्यक इनकार नहीं करेंगे, महत्त्वपूर्ण कारण होने पर ही इनकार करेंगे, इसलिए निमन्त्रण के पश्चात् भी गुरु से पूछने से वह निमन्त्रण निर्दोष हो जाता है ।। ४१ ।।
. उपसम्पदा सामाचारी उवसंपया य तिविहा णाणे तह दंसणे चरित्ते य ।। दंसणणाणे तिविहा दुविहा य चरित्तमट्ठाए ॥ ४२ ॥ उपसम्पदा च त्रिविधा ज्ञाने तथा दर्शने चारित्रे च । दर्शनज्ञानयोत्रिविधा द्विविधा च चरित्रार्थाय ।। ४२ ।।
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