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पञ्चाशकप्रकरणम्
कोई न ले तो भी छन्दना करने वाले को लाभ गहणेऽवि णिज्जरा खलु अग्गहणेऽवि य दुहावि बंधो य । भावो एत्थ णिमित्तं आणासुद्धो
असुद्धो
द्विधापि बन्धश्च ।
ग्रहणेऽपि निर्जरा खलु अग्रहणेऽपि च भावोऽत्र निमित्तम्
आज्ञाशुद्धोऽशुद्धश्च ॥ ३७ ॥
छन्दना करने से कोई साधु आहार ग्रहण करे तो भी निर्जरा होती है और ग्रहण न करे तो भी निर्जरा होती है। इसी प्रकार छन्दना न करने से कोई साधु आहार ले तो भी कर्मबन्ध होता है और न ले तो भी। इसमें भाव (आत्मपरिणाम) कारण है। शास्त्रानुसार शुद्धभाव निर्जरा का कारण है और शास्त्रानुसार ही अशुद्धभाव बन्ध का कारण है। इसलिए छन्दना करने से साधु आहार ले या न ले, लेकिन यदि उसका भाव शास्त्रानुसार शुद्ध है तो निर्जरा होगी और अशुद्ध है तो बन्ध होगा ।। ३७ ।।
निमन्त्रण सामाचारी
सज्झायादुव्वाओ गुरुकिच्चे सेस तं पुच्छिऊण कज्जे सेसाण णिमंतणं स्वाध्यायादिपरिश्रान्तः (सन्) गुरुकृत्ये शेषकेऽसति । तं पृष्ट्वा कार्ये शेषाणां निमन्त्रणं
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असंतम्मि ।
यतीनां
निपुणं
[ द्वादश
स्वाध्याय आदि से ऊब जाये तो गुरु का वस्त्रपरिकर्म आदि कार्य करना चाहिए। यदि ऐसा कोई काम शेष न हो तो गुरु से पूछकर अन्य साधुओं को उनके लिए आहार लाने के लिए निमन्त्रण देना चाहिए, अर्थात् उनसे कहना चाहिए कि मैं आप लोगों के लिए आहार लेने जाता हूँ ॥ ३८ ॥
साधु को किसी न किसी कार्य में लगे रहना चाहिए दुलहं खलु मणुयत्तं जिणवयणं वीरियं च एयं लद्धूण सया अपमाओ होइ दुग्गतरयणायर - रयणगहणतुल्लं जईण आयति - फलमद्ध्रुव साहणं च णिउणं दुर्लभं खलु मनुजत्वं जिनवचनं वीर्यञ्च एतल्लब्ध्वा सदा अप्रमादो भवति दुर्गत- रत्नाकर - रत्नग्रहणतुल्यं आयतिफलमध्रुवसाधनञ्च
य ।। ३७ ।।
कुज्जा ॥ ३८ ॥
कुर्यात् ।। ३८ ।।
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धम्मम्मि |
कायव्वो ।। ३९ ।। -
किच्चति ।
मुणेयव्वं ॥ ४० ॥
धर्मे ।
कर्तव्यः ॥ ३९ ॥
कृत्यमिति ।
ज्ञातव्यम् ॥ ४० ॥
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