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द्वादश]
साधुसामाचारीविधि पञ्चाशक
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छन्दना सामाचारी पुव्वगहिएण छंदण गुरुआणाए जहारिहं होति । असणादिणा उ एसा णेयेह विसेसविसउत्ति ।। ३४ ।। पूर्वगृहीतेन छन्दना गुर्वाज्ञया यथार्हं भवति । अशनादिना तु एषा ज्ञेयेह विशेषविषय इति ॥ ३४ ।।
सर्वप्रथम भिक्षा में लाये हुए भोजनादि हेतु गुरु की आज्ञा से बाल, ग्लान आदि को योग्यता के अनुसार निमन्त्रण देना छन्दना सामाचारी है। मंडली में भोजन नहीं करने वाले विशिष्ट प्रकार के साधु को ही इस सामाचारी का पालन करना होता है ।। ३४ ॥
किस प्रकार के साधु छन्दना करें? जो अत्तलद्धिओ खलु विसिट्ठखमगो व पारणाइत्तो । इहरा मंडलिभोगो जतीण तह एगभत्तं च ।। ३५ ।। यो आत्मलब्धिकः खलु विशिष्टक्षपको वा पारणकवान् । इतरथा मण्डल्यभोगो यतीनां तथा एकभक्तञ्च ॥ ३५ ।।
जो आत्मलब्धिक (स्वयं के द्वारा ही प्राप्त किये हुए भोजन को करने वाला) हो, जो अट्ठम आदि विशिष्ट तप करता हो, पारणा करने वाला हो, जो असहिष्णुता के कारण मण्डली से अलग भोजन करने वाला हो वही साधु छन्दना सामाचारी करता है। इसके अतिरिक्त दूसरे साधु मण्डली में ही एकाशन करते हैं, इसलिए उनके पास पहले लाया हुआ भोजन न होने से उसकी छन्दना सामाचारी नहीं होती है ।। ३५ ॥
आत्मलब्धिक आदि साधु को छन्दना सामाचारी क्यों होती है नाणादुवग्गहे सति अहिगे गहणं इमस्सऽणुण्णायं । दोण्हवि इट्ठफलं तं अतिगंभीराण धीराण ॥ ३६ ।। ज्ञानाद्युपग्रहे सति अधिके ग्रहणमस्यानुज्ञातम् । द्वयोरपि इष्टफलं तदतिगम्भीरयो धीरयोः ।। ३६ ।।
दूसरे साधुओं की ज्ञानादि गुणों की वृद्धि होती हो तो आत्मलब्धिक आदि साधुओं को यह छूट है कि वे अपनी आवश्यकता से अधिक आहार लायें। निमन्त्रण करके देने और लेने से दोनों को अभीष्ट-फल की प्राप्ति होती है। किन्तु वे दोनों अति गम्भीर और धैर्यवान् होने चाहिए ॥ ३६ ॥ १. 'जतीऍ' इति पाठान्तरम् ।
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