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पञ्चाशकप्रकरणम्
[ द्वादश
कार्यान्तरं न कार्यं तेन कालान्तरे वा कार्यमिति । अन्यो वा तत् करिष्यति कृतं वा एवमादयो हेतवः ॥ ३१ ।। अथवाऽपि प्रवृत्तस्य त्रिवारस्खलनायां विधिप्रयोगेऽपि । प्रतिपृच्छनेति ज्ञेया तस्मिन् गमनं शकुनवृद्ध्या ॥ ३२ ।।
शिष्य के द्वारा पुनः पूछने पर गुरु दूसरा कार्य करने को कह सकते हैं या पहले कहे हुए कार्य का निषेध कर सकते हैं या बाद में करने को कह सकते हैं या दूसरा शिष्य करेगा - ऐसा कह सकते हैं या दूसरे साधु ने उसे कर लिया है -- ऐसा कह सकते हैं या पहले कहे हुए कार्य के विषय में कुछ नई सूचना दे सकते हैं। प्रतिपृच्छना करने के लिए ऐसे अनेक कारण होते हैं ।। ३१ ।।
कहे हुए कार्य को करने हेतु जाते समय साधु को यदि अपशकुन के कारण वापस आना पड़े तो उसे विधिप्रयोग करना चाहिए। वह इस प्रकार है - एक बार वापस आना पड़े तो आठ उच्छ्वास (एक नवकार) के बराबर कायोत्सर्ग करना चाहिए। दूसरी बार वापिस आना पड़े तो सोलह उच्छ्वासों (दो नवकारों) के बराबर और तीसरी बार वापिस आना पड़े तो संघाटक के रूप में बड़े साधु को ले जाना चाहिए। इसी प्रकार तीन बार वापस आना पड़े तो फिर से गुरु से पूछना चाहिए - यही प्रतिपृच्छना सामाचारी है। गुरु से फिर से पूछकर शकुन होने पर कार्य के लिए जाना चाहिए ।। ३२ ।।
प्रतिपृच्छा में मतान्तर पुव्वणिसिद्धे अण्णे पडिपुच्छा किल उवट्ठिए कज्जे । एवंपि नत्थि दोसो उस्सग्गाईहिं धम्मठिई ।। ३३ ।। पूर्वनिषिद्धे अन्ये प्रतिपृच्छा किल उपस्थिते कार्ये । एवमपि नास्ति दोष उत्सर्गादिभिः धर्मस्थितिः ॥ ३३ ॥
कुछ आचार्य कहते हैं कि पहले गुरु ने जिस काम को करने से मना किया था, उस काम को करने की आवश्यकता पड़ने पर गुरु से फिर से पूछना प्रतिपृच्छना सामाचारी है।
प्रश्न : गुरुजी ने जिस काम को अनुचित होने के कारण मना किया है, उसे करने के लिए फिर से पूछने में दोष क्यों नहीं है ?
उत्तर : इसमें दोष नहीं है, क्योंकि धर्मव्यवस्था उत्सर्ग और अपवाद से है। उत्सर्ग से जो कार्य पहले करने योग्य नहीं था वह परिस्थिति विशेष के कारण बाद में करने लायक हो सकता है, इसलिए पहले मना किये गये कार्य को करने के लिए गुरु से फिर से पूछा जा सकता है, इसमें दोष नहीं है ।। ३३ ॥
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