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द्वादश]
साधुसामाचारीविधि पञ्चाशक
गुरु से पूछकर कार्य करने से अच्छी तरह कार्यसिद्धि होने पर वर्तमान भव में पापकर्मों का नाश होता है और पुण्यकर्मों का बन्ध होता है तथा आगामी भव में शुभगति और सद्गुरु का लाभ होता है। इससे वाञ्छित कार्यों का प्रशस्त अनुबन्ध होता है और इसी प्रकार अन्य सभी कार्यों की सिद्धि होती है ।। २८ ॥
गुरु से पूछे बिना कोई कार्य नहीं होना चाहिए इहरा विवज्जतो खलु इमस्स सव्वस्स होइ जं तेणं । बहुवेलाइकमेणं सव्वत्थाऽऽपुच्छणा भणिया ॥ २९ ॥ इतरथा विपर्ययः खलु अस्य सर्वस्य भवति यत्तेन । बहुवेलादिक्रमेण सर्वत्राऽऽपृच्छना भणिता ।। २९ ।।
गुरु या गुरु को सम्मत स्थविर से पूछे बिना कार्य करने पर उपर्युक्त सभी लाभों से विपरीत परिणाम होता है, इसलिए साधु को प्रत्येक कार्य करने से पूर्व आपृच्छना करनी चाहिए। उन्मेष, निमेष, श्वासोच्छ्वास आदि सामान्य कार्य बार-बार पूछना असम्भव होने के कारण (सुबह एक बार) बहुवेलादि आदेश से पूछ लिया जाता है ।। २९ ।।
प्रतिपृच्छा सामाचारी पडिपुच्छणा उ कज्जे पुव्वणिउत्तस्स करणकालम्मि । कज्जंतरादिहेउं णिद्दिट्ठा समयकेऊहिं ॥ ३० ॥ प्रतिपृच्छना तु कार्ये पूर्वनियुक्तस्य करणकाले । कार्यान्तरादिहेतोः निर्दिष्टा समयकेतुभिः ।। ३० ।।
गुरु के द्वारा पहले कहे गये कार्य को प्रारम्भ करते समय ‘आपने जो कार्य पहले करने को कहा था उसे मैं करने जा रहा हूं', ऐसा फिर से पूछना प्रतिपृच्छना कहलाता है। फिर से पूछने का कारण यह है कि पहले कहे हुए कार्य के अतिरिक्त दूसरे भी कार्य करने होते हैं। अथवा पहले कहा हुआ कार्य नहीं भी करना होता है। इसलिए कार्य करते समय फिर से पूछना चाहिए ॥ ३० ॥
प्रतिपृच्छना करने का कारण कज्जंतरं ण कज्जं तेणं कालंतरे व कज्जति । अण्णो वा तं काहिति कयं व एमाइया हेऊ ।। ३१ ।। अहवावि पवित्तस्सा तिवारखलणाएँ विहिपओगेऽवि । पडिपुच्छणत्ति नेया तहिं गमणं सउणवुड्ढीए ।। ३२ ॥
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