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पञ्चाशकप्रकरणम्
[द्वादश
किसकी 'निसीहि' भावपूर्वक होती है ? जो होइ निसिद्धप्पा णिसीहिया तस्स भावतो होइ । अणिसिद्धस्स उ एसा वइमेत्तं चेव दट्ठव्वा ।। २५ ।। यः भवति निषिद्धात्मा निषीधिका तस्य भावतो भवति ।। अनिषिद्धस्य तु एषा वाङ्मात्रमेव द्रष्टव्या ।। २५ ।।
जो साधु सावद्ययोग से रहित है, उसी की निषीधिका भावपूर्वक होती है। सावद्ययोग सहित साधु की 'निसीहि' शब्दोच्चारण मात्र है ।। २५ ।।
आपृच्छना सामाचारी । आउच्छणा उ कज्जे गुरुणो गुरुसम्मयस्स वा णियमा । एवं खु तयं सेयं जायति सति णिज्जराहेऊ ।। २६ ।। आपृच्छना तु कार्ये गुरोर्गुरुसम्मतस्य वा नियमात् । एवं खलु तकं श्रेयः जायते सकृत् निर्जराहेतुः ।। २६ ।।
ज्ञान आदि सम्बन्धी कार्य गुरु अथवा गुरु को सम्मत स्थविर आदि से पूछकर करना आपृच्छना सामाचारी है। ऐसा कार्य करना श्रेयस्कर और कर्मनिर्जरा का हेतु है ।। २६ ।।
. श्रेयस्कर होने का कारण सो विहिनाया तस्साहणंमि तज्जाणणा सुणायंति । सन्नाणा पडिवत्ती सुहभावो मंगलो तत्थ ।। २७ ।। इट्ठपसिद्धऽणुबंधो धण्णो पावखयपुण्णबंधाओ। सुहगइगुरुलाभाओ एवं चिय सव्वसिद्धित्ति ।। २८ ।। स विधिज्ञाता तत्साधने तज्ज्ञानात् सुज्ञातमिति । स्वज्ञानात् प्रतिपत्तिः शुभभावो मङ्गलस्तत्र ।। २७ ।। इष्टप्रसिद्धानुबन्धो धन्यः पापक्षयपुण्यबन्धात् । शुभगतिगुरुलाभादेवमेव
सर्वसिद्धिरिति ।। २८ ॥ गुरु अथवा गुरु को मान्य स्थविर आदि वस्त्रप्रक्षालनादि कार्यों की विधि के ज्ञाता होते हैं। वस्त्र प्रक्षालनादि करते समय उनसे इसकी विधि जानने को मिलती है। वस्त्रप्रक्षालनादि की विधि स्वयं जान लेने से उस विधि से कार्य करने पर जीवरक्षा होती है। जीवरक्षा होने से गुरु और जिन के प्रति विश्वसनीयता बढ़ती है। ऐसी विश्वसनीयता शुभभाव है। कार्य में प्रवृत्ति करने वाले का शुभभाव मंगल रूप है ॥ २७ ॥
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