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द्वादश ]
साधुसामाचारीविधि पञ्चाशक
आवश्यकी सामाचारी है, उसी प्रकार देव गुरु के अवग्रह अर्थात् स्थान में प्रवेश करते समय निषीधिका सामाचारी है। अर्थात् देव गुरु के अवग्रह में प्रवेश करते समय अशुभ- व्यापार के त्याग का सूचक 'निसीहि' शब्द बोलना चाहिए। अशुभव्यापार का त्याग करने वाले में 'निसीहि' शब्द का अर्थ घटित होता है। अशुभ व्यापार का त्याग नहीं करने वाले के लिए निषीधिका (निसीहि) शब्द संगत नहीं है, क्योंकि उसमें 'निसीहि' शब्द का अर्थ घटित नहीं होता है। अतः अवग्रह में प्रवेश के समय अशुभ - व्यापार का त्याग करना और उसके सूचक 'निसीहि' शब्द का उच्चारण करना नैषेधिकी है ।। २२ ।।
देव
- गुरु के अवग्रह में प्रवेश करते समय निसीहि कहने का कारण गुरुदेवोग्गहभूमीऍ जत्तओ चेव होति परिभोगो । इट्ठफलसाहगो सइ अणिट्ठफलसाहगो इहरा ।। २३ ।। तो ओसरणादिसु दंसणमेत्ते गयादिओसरणं । सुव्वइ चेइयसिहराइएस सुस्सावगाणंपि ॥ २४ ॥ गुरुदेवावग्रहभूम्या यत्नत एव भवति परिभोगः । इष्टफलसाधकः सकृद् अनिष्टफलसाधक इतरथा ।। २३ ।। यत अवसरणादिषु दर्शनमात्रे गजाद्यपसरणम् । श्रूयते चैत्यशिखरादिकेषु सुश्रावकानामपि ॥ २४ ॥ गुरुदेव की अवग्रहभूमि का परिभोग हमेशा ऐसी सावधानीपूर्वक किया जाये कि आशातना न हो तो ही अभीष्ट फलदायी होता है, अन्यथा अनिष्ट फलदायी तथा कर्मबन्ध का कारण बनता है।
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यहाँ यह ज्ञातव्य है कि गुरु जहाँ बैठे हों उस स्थान के चारों ओर शरीर प्रमाण गुरु का अवग्रह है और देव का अवग्रह उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकार का होता है। उत्कृष्ट अवग्रह चारों ओर साठ हाथ प्रमाण, मध्यम नौ एवं साठ हाथ के बीच और जघन्य नौ हाथ प्रमाण होता है || २३ ||
आशातनारहित सावधानीपूर्वक गुरुदेव के अवग्रह का परिभोग इष्ट फलदायी होता है, इसलिए जब सुश्रावक भी समवसरण में जाते हैं तब महेन्द्रध्वज, चामर आदि को तथा जब मन्दिर में जाते हैं तब शिखर, कलश आदि को देखते ही अपने हाथी, अश्व या पालकी से नीचे उतर जाते हैं - ऐसा सुना जाता है। इसलिए साधु को भी गुरु अवग्रह में जाते समय सावधानी रखनी चाहिए ।। २४ ।।
१. 'सुच्चइ' इति पाठान्तरम् ।
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