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पञ्चाशकप्रकरणम्
[द्वादश
भिक्षाटन आदि कार्य आवश्यक कार्य हैं। इसके अतिरिक्त अन्य कार्य अकार्य हैं। इसलिए ज्ञानादि साधक कार्य के अतिरिक्त अन्य किसी कार्य के लिए बाहर जाने वाले साधु की आवश्यिकी शुद्ध नहीं है, क्योंकि उसमें आवश्यिकी शब्द का अर्थ घटित नहीं होता है ।। १९ ।।
निष्कारण बाहर जाने वाले की आवश्यिकी का स्वरूप वइमेत्तं णिव्विसयं दोसाय मुसत्ति एव विण्णेयं । कुसलेहिं वयणाओ वइरेगेणं जओ भणियं ।। २० ॥ आवस्सिया उ आवस्सिएहिं सव्वेहिं जुत्तजोगस्स । एयस्सेसो उचिओ इयरस्स ण चेव णस्थित्ति ।। २१ ॥ वाङ्मात्रं निर्विषयं दोषाय मृषेति एव विज्ञेयम् । कुशलैः वचनाद् व्यतिरेकेण यतः भणितम् ।। २० ।। आवश्यिको तु आवश्यकैः सर्वै युक्तयोगस्य । एतस्यैष उचित इतरस्य न चैव नास्तीति ।। २१ ॥
निष्कारण बाहर जाने वाले साधु की आवश्यिकी निरर्थक होने से शब्दोच्चारण मात्र है। मात्र शब्दोच्चारण रूप आवश्यिकी मृषावाद होने के कारण कर्मबन्ध रूप दोष का कारण है। यह तथ्य निपुण पुरुषों को आगम से जानना चाहिए। यह तथ्य सामायिक नियुक्ति में विस्तार से कहा गया है ।। २० ॥
वह इस प्रकार है -
जिस साधु के कायादियोग प्रतिक्रमण आदि सभी आवश्यकों से युक्त हैं, उस साधु की गुर्वाज्ञापूर्वक बाहर जाते समय आवश्यिकी शुद्ध है, क्योंकि वैसे साधुओं की प्रवृत्ति में आवश्यिकी शब्द का अर्थ घटित होता है। इसके विपरीत साधु की आवश्यिकी अशुद्ध है - मात्र शब्दोच्चारण रूप है, क्योंकि उसकी प्रवृत्ति में आवश्यिकी शब्द का अर्थ घटित नहीं होता है ।। २१ ।।
नषेधिकी सामाचारी का स्वरूप एवोग्गहप्पवेसे णिसीहिया तह णिसिद्धजोगस्स । एयस्सेसो उचिओ इयरस्स ण चेव नत्थित्ति ।। २२ ।। एवमवग्रहप्रवेशे निषीधिका तथा निषिद्धयोगस्य । एतस्यैष उचित इतरस्य न चैव नास्तीति ।। २२ ।। जिस प्रकार ज्ञानादि कार्य के लिए वसति से बाहर निकलते समय
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