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द्वादश]
साधुसामाचारीविधि पञ्चाशक
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चाहिए अथवा संविग्नपाक्षिक गीतार्थ 'युक्तियुक्त या युक्तिरहित' कुछ भी कहें तो 'तहत्ति' कहना चाहिए, किन्तु अगीतार्थ के वचन में 'तहत्ति नहीं कहना चाहिए, क्योंकि वह अज्ञानता के कारण असत्य वचन कहेगा - ऐसी सम्भावना होती है ॥ १६ ॥
गुणसम्पन्न गुरु के वचन में तहत्ति नहीं कहने में मिथ्यात्व संविग्गोऽणुवएसं ण देइ दुब्भासियं कडुविवागं । जाणतो तम्मि तहा अतहक्कारो उ मिच्छत्तं ।। १७ ।। संविनोऽनुपदेशं न ददाति दुर्भाषितं कटुविपाकम् । जानन् तस्मिंस्तथा अतथाकारस्तु मिथ्यात्वम् ।। १७ ॥
संविन (भवभीरु) गुरु यह जानता है कि दुर्भाषित - आगमविरुद्ध उपदेश देने से मारीचि के भव में भगवान् महावीर की तरह कटु फल मिलता है इसलिए वह कभी भी आगमविरुद्ध उपदेश नहीं देता है। अतएव संविग्न और संविनपाक्षिक गुरु के वचन के लिए नि:शंक होकर 'तहत्ति' न कहना मिथ्यात्व है ॥ १७ ॥
आवश्यिकी सामाचारी का स्वरूप कज्जेणं गच्छंतस्स गुरुणिओएण सुत्तणीईए । आवस्सियत्ति णेया सुद्धा अण्णत्थजोगाओ ।। १८ ॥ कार्येण गच्छतो गुरुनियोगेन सूत्रनीत्या । आवश्यिकीति ज्ञेया शुद्धा अन्वर्थयोगात् ।। १८ ॥
ज्ञानादि कार्य के लिए गुरु की आज्ञा से आगमोक्त ईर्यासमिति आदि का विधिपूर्वक पालन करते हुए वसति से बाहर निकलते हुए साधु की आवश्यिकी शुद्ध जानना चाहिए, क्योंकि उसमें आवश्यिकी शब्द का अर्थ घटित होता है ॥ १८ ॥
किस कार्य के लिए बाहर निकलना चाहिए कज्जंपि णाणदंसणचरित्तजोगाण साहगं जं तु। . जइणो सेसमकज्ज ण तत्थ आवस्सिया सुद्धा ।। १९ ।। कार्यमपि ज्ञानदर्शनचारित्रयोगानां साधकं यत्तु । यतेः शेषमकार्यं न तत्र आवश्यिकी शुद्धा ॥ १९ ।। यहाँ साधु के जो कार्य ज्ञान, दर्शन. और चारित्र साधक हों, वही तथा
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