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[ द्वादश
'क्क'
मैंने पाप किया इसका स्वीकार करना । 'ड’ उपशम से पाप
को लाँघ जाता हूँ। अर्थात् मैंने पाप किया है यह स्वीकार करता हूँ और उपशमभाव से पूर्वकृत पापों से रहित बन जाता हूँ। यह 'मिच्छामि दुक्कड' पद के अक्षरों का संक्षिप्त अर्थ है ।। १२-१३ ॥
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पञ्चाशकप्रकरणम्
तथाकार सामाचारी कप्पाकप्पे परिणिट्ठियस्स ठाणेसु पंचसु संयमतवड्डगस्स उ अविगप्पेणं
कल्पाकल्पे परिनिष्ठितस्य स्थानेषु पञ्चसु संयमतपाऽऽढ्यकस्य तु अविकल्पेन
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ठियस्स । हक्कारो ।। १४ ।
कल्प और अकल्प ( आगम में बताये गये जिनकल्प, स्थविरकल्प आदि कल्प और चरकादि अकल्प या ग्राह्य और अग्राह्य) में पूर्ण ज्ञानवाले, पाँच महाव्रतों का यथोचित पालन करने वाले तथा संयम और तप से परिपूर्ण मुनियों के आगे नि:शंक होकर तथाकार करना चाहिए। अर्थात् 'आप जो कहते हैं वही सत्य है'. इसका सूचक 'तहत्ति' शब्द कहना चाहिए || १४ ||
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स्थितस्य ।
तथाकारः ।। १४ ।।
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तहत्ति कहने का समय
वायणपडिसुणणाए उवएसे सुत्तअट्ठकहणाए । अवितहमेयंति तहा अविगप्पेणं तहक्कारो ।। १५ ।।
वाचनाप्रति श्रवणायामुपदेशे सूत्रार्थकथनायाम् । अवितथमेतदिति तथा अविकल्पेन तथाकारः ।। १५ ।
सूत्र की वाचना सुनते समय, आचार सम्बन्धी उपदेश के समय और सूत्रार्थ के व्याख्यान के समय गुरु के सामने निःशंक रूप से 'तहत्ति' ( तथेति ) कहना चाहिए ।। १५ ।।
उक्त प्रकार के गुरु के अभाव में क्या इयरम्मि विगप्पेणं जं जुत्तिखमं तहिं ण संविग्गपक्खिए वा गीए सव्वत्थ इतरस्मिन् विकल्पेन यद् युक्तिक्षमं तस्मिन्न संविग्रपाक्षिके वा गीते सर्वत्र
करना चाहिए सेसम्म ।
पूर्वोक्त ज्ञान सम्पत्ति आदि गुणों से रहित गुरु यदि कुछ कहे तो 'तहत्ति' कहना भी चाहिए और नहीं भी कहना चाहिए। गुरु के जो वचन युक्तियुक्त हों उनके लिए 'तहत्ति' कहना चाहिए, जो युक्तियुक्त न हों उनके लिए नहीं कहना
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इयरेण ।। १६ ।।
शेषे ।
इतरेण ।। १६ ।।
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