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पञ्चाशकप्र
[एकादश
बर्तन की तरह स्नेहरहित, कमलपत्र की तरह निरपेक्ष, शंख की तरह निरञ्जन, कछुए की तरह इन्द्रियों को नियन्त्रण में रखने वाला आदि गुणों से युक्त होता है ।। ४९ ।।
साधु धर्म का फल एसो पुण संविग्गो संवेगं सेसयाण जणयंतो । कुग्गहविरहेण लहुं पावइ मोक्खं सयासोक्खं ।। ५० ।। एषः पुनः संविग्नः संवेगं शेषकाणां जनयन् । कुग्रहविरहेण लघु प्राप्नोति मोक्षं सदासौख्यम् ॥ ५० ॥
उक्त गुणोंवाला भावसाधु स्वयं संविग्न होता है। दूसरों के मन में अपने उपदेश और अच्छे आचरण से संवेग अर्थात् वैराग्यभाव उत्पन्न करता है। ऐसा साधु दुराग्रहों से रहित होने से जल्दी ही शाश्वत सुखवाले मोक्ष को प्राप्त करता है ॥ ५० ॥
॥इति साधुधर्मविधिर्नाम एकादशं पञ्चाशकम् ॥
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