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पञ्चाशकप्रकरणम्
[ एकादश
ज्ञान और दर्शन के होने पर चारित्र अवश्य होता है, इसलिए चारित्र गुण में स्थित हैं - ऐसा कहने पर उनमें ज्ञान और दर्शन के अस्तित्व का बोध स्वतः ही हो जाता है। जहाँ विशुद्ध-चारित्र होता है वहाँ ज्ञान और दर्शन अवश्य होते हैं, क्योंकि निश्चय और व्यवहारनय की अपेक्षा से शास्त्र में कहा गया है कि निश्चयनय की दृष्टि से चारित्र का घात होने पर ज्ञान और दर्शन का भी घात हो जाता है और व्यवहारनय की दृष्टि से चारित्र का घात होने पर ज्ञान व दर्शन का घात हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। इसके अनुसार अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से चारित्र का विघात होने पर ज्ञान-दर्शन का भी घात होता है, किन्तु
अप्रत्याख्यानावरणीय कषाय के उदय से चारित्र का विघात हो तो ज्ञान- दर्शन का विघात नहीं ही होता है, क्योंकि उसका उदय दर्शन का विघातक नहीं है ।। ४४-४५ ।। ।
उक्त निश्चयनय के मन्तव्य का स्पष्टीकरण जो जहवायं ण कुणति मिच्छद्दिठी तओ हु को अण्णो ? । वड्डेइ य मिच्छत्तं परस्य संकं जणेमाणो ।। ४६ ।। यो यथावादं न करोति मिथ्यादृष्टिस्ततः खलु कोऽन्यः? | वर्धयति च मिथ्यात्वं परस्य शङ्कां जनयन् ॥ ४६ ।।
निश्चयनय के अनुसार तो जो आप्तवचन को नहीं मानता है, उससे बढ़कर और कौन मिथ्यादृष्टि है ? अर्थात् आप्तवचन को नहीं मानने वाला ही सबसे बड़ा मिथ्यादृष्टि है, क्योंकि आप्तवचनानुसार चारित्राराधन नहीं करने वाले को दर्शन नहीं होता है, इसलिए वह मिथ्यादृष्टि है। इतना ही नहीं वह अपने दुराचरण से दूसरों की जिनप्रवचन के प्रति शंका पैदा करता है, जिससे मिथ्यात्व बढ़ता है ।। ४६ ।।
व्यवहारनय के मन्तव्य का स्पष्टीकरण एवं च अहिनिवेसा चरणविघाए ण णाणमादीया। तप्पडिसिद्धासेवणमोहासद्दहणभावेहिं
॥४७ ॥ अणभिनिवेसाओ पुण विवज्जया होति तव्विघाओऽवि। तक्कज्जुवलंभाओ
पच्छातावाइभावेण ॥ ४८ ॥ एवञ्च अभिनिवेशाच्चरणविघाते न ज्ञानादयः। तत्प्रतिषिद्धासेवनमोहाश्रद्धानभावैः
॥ ४७ ।। अनभिनिवेशात् पुनर्विपर्ययाद् भवन्ति तद्विघातेऽपि । तत्कार्योपलम्भात्
.. पश्चात्तापादिभावेन ।। ४८ ।।
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